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महिला अपराध और पुलिस जांच

महिला सुरक्षा और विकास को लेकर सरकार द्वारा ‘बेटी बचाओ – बेटी पढ़ाओ’ जैसे लुभावने नारे तो जरूर दिये जाते हैं परंतु ये कितने व्यावहारिक साबित होते हैं इसका पता तब चलता है जब मामले में पीड़ित को न्याय मिलता है या नहीं मिलता।

crime against women

प्रतीकात्मक तस्वीर

2012 के छावला बलात्कार और हत्या मामले के सभी आरोपियों को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गत 7 नवम्बर को रिहा कर दिया गया. हैरानी की बात है कि इस जघन्य अपराध में कोई दोषी नहीं पाया गया. कोर्ट ने अपने आदेश में जो कहा, उससे यही पता चलता है कि पुलिस की जांच और निचली अदालत की सुनवाई में कई जगह कमियाँ थीं. ज़ाहिर सी बात है कि इस फ़ैसले से न सिर्फ़ पीड़िता का परिवार बल्कि पूरा देश हैरान है.

रेप और हत्या की जाँच कर रही पुलिस भी सवालों के घेरे में है. अगर बलात्कार और हत्या हुई है तो कोई न कोई दोषी तो होगा ही? अगर इन तीन आरोपियों को सुबूतों के अभाव में छोड़ दिया गया है तो असली अपराधी कौन है? वो आज भी बेख़ौफ़ क्यों घूम रहा है? यदि ये तीनों बेक़सूर थे तो इतने सालों तक सलाख़ों के पीछे किस आधार पर थे? यदि पुलिस की प्राथमिक जांच सही नहीं थी तो निचली अदालत ने इन तीन आरोपियों को किस आधार पर फाँसी की सज़ा सुनाई? निचली अदालत ने पुलिस जांच में हुई ग़लतियों को नज़रअन्दाज़ क्यों किया? निचली अदालत के फ़ैसले पर हाई कोर्ट ने मुहर क्यों लगाई?

दस साल पहले हुए इस अपराध के जांच अधिकारियों को इस चर्चित मामले में ‘मुस्तैदी’ से जाँच के आधार पर किसी न किसी तरह का इनाम ज़रूर मिला होगा. उन सभी अधिकारियों में से कुछ सेवानिवृत भी हो चुके होंगे. ऐसे में उनके ख़िलाफ क्या कार्यवाही की जाएगी? अभियोजन पक्ष की ओर से अदालतों में पेश हुए वकीलों के प्रति सरकार का क्या रवैया रहेगा? क्या उन ‘अनुभवी’ वकीलों के ख़िलाफ़ भी कोई कार्यवाही की जाएगी? ये सभी सवाल हमारी मौजूदा जाँच व्यवस्था को शक के दायरे में लाते हैं.

जांच में लापरवाही के कारण छूट जाते हैं असल अपराधी

मामला दस साल पुराने छावला रेप और हत्या का हो। बिल्किस बानो का हो। प्रियदर्शनी मट्टू का हो। दहेज उत्पीड़न के कारण बेटियों की रहस्यमयिक मृत्यु का हो। महिलाओं के ख़िलाफ़ हुए इन अपराधों में पुलिस की प्राथमिक जाँच अपराध के जड़ तक पहुँचने की अहम कड़ी होती है. प्राथमिक जाँच ही अपराधी को उसके सही अंजाम तक पहुँचा सकती है. ज़रा सी कोताही केस को ग़लत दिशा में मोड़ सकती है. ये बात केवल महिला अपराधों पर लागू नहीं होती. परंतु प्रायः ऐसा देखा गया है कि पुलिस अधिकारी किन्ही कारणों से जब संगीन अपरोधों की जाँच को पूरी क्षमता से नहीं कर पाते तो उन्हें अदालत की लताड़ झेलनी पड़ती है. जाँच में कोताही के कारण ही असल अपराधी छूट जाते हैं.

मेरठ की स्निग्धा मल्होत्रा की गत 23 अक्तूबर को मृत्यु हुई थी। मृत्यु का कारण स्निग्धा द्वारा मरी हुई बच्ची के कारण हुए इंफ़ेक्शन को बताया जा रहा है। स्निग्धा के परिवार वालों के द्वारा ससुराल पक्ष पर दहेज उत्पीड़न का आरोप लगाया गया है। ससुराल वालों पर आरोप है कि स्निग्धा के गर्भ में पल रही सात महीने की बच्ची का गर्भपात कराया गया। स्निग्धा के मायके वालों की माँग पर मृत शिशु का पोस्टमार्टम करवाया गया। इस मामले ने तूल तब पकड़ा जब मेरठ निवासियों स्निग्धा को न्याय दिलाने के लिए प्रदर्शन किए। फ़िलहाल पुलिस इस मामले में जाँच कर रही है परंतु आरोपियों के ख़िलाफ़ कोई कार्यवाही नहीं हुई। शायद इस घटना के आरोपी भी रसूख़ वाले हैं। लेकिन कोई कितना भी रसूखदार क्यों न हों कानून के शासन का एक मूल सिद्धांत है, ‘कि आप कितने ऊंचे क्यों न हों कानून आपसे ऊपर है।’ इस मामले की जाँच कर रहे पुलिस अधिकारियों को इस बात को ध्यान में रखते हुए जाँच को सही दिशा में करना चाहिए।

भारत महिला अपराधों के मामले में सबसे पहले स्थान पर

2018 में थॉमसन-रॉयटर्स फ़ाउंडेशन द्वारा एक सर्वे के मुताबिक, भारत महिला अपराधों के मामले में सबसे पहले स्थान पर आता है। सरकारी आँकड़ों के अनुसार साल 2007 और 2016 के बीच महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा व अपराधों के मामलों में 83% की बढ़ोतरी हुई है। दुनिया भर में ऐसे कई देश हैं जहां महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराधों के लिये बहुत कड़ी सज़ाएँ हैं। मुस्लिम देशों में हाथ काटने से लेकर सिर कलम करने की सज़ा के  प्रावधान भी हैं। भारत के मुक़ाबले और देशों में महिला अपराध पर बहुत जल्द और कड़ी कार्यवाही होती है। हमारे देश के क़ानून कब और कितने सख़्त होंगे ये तो आने वाला समय ही बताएगा। परंतु ऐसे सर्वे में अगर देवियों को पूजने वाला भारत अव्वल नंबर पर आता है तो यह हमारे लिये शर्म की बात है।

कड़े कानून बने तो समाज में कुछ उम्मीद जागी

महिला सुरक्षा और विकास को लेकर सरकार द्वारा ‘बेटी बचाओ – बेटी पढ़ाओ’ जैसे लुभावने नारे तो जरूर दिये जाते हैं परंतु ये कितने व्यावहारिक साबित होते हैं इसका पता तब चलता है जब मामले में पीड़ित को न्याय मिलता है या नहीं मिलता. दिल्ली के निर्भया कांड में जिस तरह देश भर में तूफ़ान मचा और फिर कड़े क़ानून बने उससे समाज में कुछ उम्मीद जागी थी. परंतु जिस तरह बिल्किस बानो या छावला रेप के आरोपियों को जाँच की कमियों के चलते छोड़ दिया गया उससे ऐसे नारों पर भी संदेह होता है. सरकार चाहे किसी भी दल की हो नारे केवल चुनाव के दौरान वोट बटोरने के लिए ही होते हैं. नारों को अमल में लाने के लिए सरकारी तंत्र को सही दिशा में चलना होगा और कड़े कदम भी उठाने होंगे.

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