सांकेतिक तस्वीर
किसी भी अपराध के संबंध में निर्दोषता की धारणा एक कानूनी सिद्धांत है। जिसके अनुसार किसी भी अपराध के लिए आरोपी प्रत्येक व्यक्ति को तब तक निर्दोष माना जाता है जब तक कि उसे दोषी साबित न कर दिया जाए। देश की शीर्ष अदालत ने अपने कई आदेशों में यह भी स्पष्ट किया है कि ‘ज़मानत देना नियम है और जेल में रखना अपवाद।’ परंतु आये दिन यह देखने को मिलता है कि जब भी किसी आरोपी को निचली अदालत से ज़मानत दी जाती है तो सरकारी एजेंसियाँ तुरंत उस फ़ैसले के ख़िलाफ़ हाई कोर्ट पहुँच कर रोक लगवा लेती हैं। बीते मंगलवार सुप्रीम कोर्ट ने इस चलन पर आपत्ति जताते हुए एक अहम फ़ैसला दिया।
सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति अभय सिंह ओका और न्यायमूर्ति ऑगस्टिन जॉर्ज मसीह की खंडपीठ ने धन शोधन के मामले में आरोपी परविंदर सिंह खुराना की याचिका पर सुनवाई करते हुए देश भर के हाई कोर्टों को यह निर्देश दिया कि, “कोर्ट को स्टे लगाने का अधिकार होता है, लेकिन किसी की जमानत पर यूं ही रोक नहीं लगाई जा सकती। सिर्फ असामान्य मामलों और असाधारण परिस्थितियों में ही ऐसा करना चाहिए। हाई कोर्ट को ऐसे मामलों में सोच समझकर फैसला देना चाहिए। सामान्य तौर पर हाई कोर्ट को जमानत के आदेशों पर रोक नहीं लगानी चाहिए।”
उल्लेखनीय है कि मनी लॉड्रिंग के आरोपी परविंदर सिंह खुराना को प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) ने 2023 में गिरफ़्तार किया था। लेकिन खुराना को ट्रायल कोर्ट से जून 2023 में ही बेल मिल गई थी, जिसके खिलाफ ईडी ने हाई कोर्ट में याचिका लगाई थी। हाई कोर्ट ने ट्रायल कोर्ट के बेल ऑर्डर पर रोक लगा दी। जिसे चुनौती देते हुए खुराना सुप्रीम कोर्ट पहुँचे। सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने उनकी स्वतंत्रता को लेकर चिंता जताई। कोर्ट ने कहा कि, “एक साल तक एक शख्स बिना किसी कारण के जेल में सड़ रहा है।” केस की पिछली सुनवाई पर ईडी की तरफ़ से पेश हुए सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कोर्ट से कहा कि खुराना को ज़मानत मिलते ही वो देश छोड़ कर जा सकता है। यदि वो देश छोड़ कर चला गया तो ज़मानत के क्या मायने? सुप्रीम कोर्ट ने इस तर्क को अस्वीकार करते हुए यह स्पष्ट किया कि, “ज़मानत पर रोक केवल बहुत ही दुर्लभ मामलों में लगाई जा सकती है। यदि आरोपी पर देशद्रोह, आतंकवाद या एनईए जैसे संगीन मामले दर्ज हों तभी ज़मानत पर रोक लगाई जानी चाहिए।”
ग़ौरतलब है कि देश भर की जेलों में लगभग 6 लाख क़ैदी बंद हैं। इनमें से बहुत सारे क़ैदी ऐसे हैं जिनका आरोप सिद्ध भी नहीं हुआ है। ऐसे में उन्हें यदि ज़मानत मिल जाती है तो जाँच एजेंसियाँ या सरकारी पक्ष इसके विरोध में खड़ी हो जाती है। परंतु वहीं दूसरी तरफ़, जिन मामलों में सीबीआई या अन्य जाँच एजेंसियों को तत्तपर्ता दिखानी होती है वहाँ तो रातों-रात गिरफ़्तारी भी हो जाती है और कार्यवाही भी गति पकड़ती है। परंतु जहां ढील देने का मन होता है या ऊपर से ढील देने के ‘निर्देश’ होते हैं, वहाँ विजय माल्या, नीरव मोदी और मेहूल चौकसी जैसे आर्थिक अपराधियों को देश छोड़ कर भाग जाने का मौक़ा भी दे दिया जाता है।
यदि जाँच एजेंसियाँ वास्तव में संगीन अपराधों को गंभीरता से लें तो उन्हें देश में लंबित पड़े सैंकड़ों मामलों में तेज़ी दिखानी चाहिए। केवल चुनिंदा मामलों में तेज़ी दिखाने से जाँच एजेंसियों पर सवाल तो उठेंगे ही। अब बनी फ्रॉड के मामलों को ही लें तो पिछली लोक सभा में एक सवाल का उत्तर देते हुए भारत सरकार के वित्त राज्य मंत्री डॉ भागवत कराड ने बताया था कि 31 मार्च 2022 को ख़त्म होने वाले वित्तीय वर्ष में ‘टॉप 50 विल्फुल लोन डिफ़ॉल्टरों’ ने बैंकों के साथ 5,40,958 करोड़ धोखाधड़ी की है। परंतु सीबीआई, ईडी व इनकम टैक्स विभाग ने इन मामलों में काफ़ी ढुलमुल रवैया अपनाया।
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मिसाल के तौर पर लोक सभा में दिये गये इसी उत्तर में देश के ‘टॉप 50 विल्फुल लोन डिफ़ॉल्टरों’ की सूची में छटे नंबर पर एक नाम ‘फ्रॉस्ट इंटरनेशनल लिमिटेड’ का भी है। सूची के अनुसार इनके बैंक फ्रॉड की रक़म 3311 करोड़ है। इस कंपनी पर 14 बैंकों के एक समूह के साथ धोखाधड़ी का आरोप है। इस कंपनी के निर्देशकों में उदय देसाई, सुजय देसाई, सुनील वर्मा व अन्य हैं। ग़ौरतलब है कि बैंक ऑफ़ इंडिया और इण्डियन ओवरसीज़ बैंक ने 2020 में उदय देसाई और 13 अन्य लोगों के ख़िलाफ़ सीबीआई में धोखाधड़ी के मामलों की एफ़आईआर लिखवाई थी। इतना ही नहीं बैंकों द्वारा इस समूह के निर्देशकों के ख़िलाफ़ ‘लुक आउट नोटिस’ भी जारी करवाया गया था। परंतु इस मामले की जाँच कर रही एजेंसियाँ किन्हीं कारणों से इस गंभीर मामले में फुर्ती नहीं दिखा रही हैं। 2020 में जब इस मामले की एफ़आईआर दर्ज हुई थी तब यह मामला नीरव मोदी और मेहूल चौकसी के 13,000 करोड़ के बैंक फ्रॉड मामले के बाद दूसरा सबसे बड़ा मामला था। लेकिन इतने संगीन मामले के अपराधी आज तक खुले घूम रहे हैं। वहीं इससे कई छोटे अपराध के मामले में यदि अपराधी ज़मानत लेता है तो जाँच एजेंसियाँ इसका विरोध करने हाई कोर्ट पहुँच जाती हैं।
ऐसे में देश की शीर्ष अदालत के आदेश के बाद जाँच एजेंसियों द्वारा अपनाए गए दोहरे मापदंड का भी पर्दाफ़ाश होता है। इसलिए जाँच एजेंसियों को संगीन मामलों में फुर्ती दिखानी चाहिए न कि चुनिंदा मामलों में ज़मानत का विरोध कर सुप्रीम कोर्ट की लताड़ का सामना करना चाहिए। यदि जाँच एजेंसियाँ सभी आरोपियों को एक ही पैमाने से माँपेंगी तो जनता के बीच सही संदेश जाएगा, खुराना हो, केजरीवाल हो या देसाई बंधु हों, क़ानून की नज़र में सभी एक समान हैं।
*लेखक दिल्ली स्थित कालचक्र समाचार ब्यूरो के संपादक हैं।
-भारत एक्सप्रेस
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