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दलितों का अपमान कब तक?

आज से 32 वर्ष पूर्व 1991 में अपने इसी मध्य प्रदेश के सागर जिले के एक छोटे से गांव में एक आदिवासी दलित के मंदिर प्रवेश करने पर गांव के सवर्ण ने उसके मुंह पर पेशाब कर दिया था।

सीधी में पेशाब कांड (फाइल फोटो)

आज से 32 वर्ष पूर्व 1991 में अपने इसी मध्य प्रदेश के सागर जिले के एक छोटे से गांव में एक आदिवासी दलित के मंदिर प्रवेश करने पर गांव के सवर्ण ने उसके मुंह पर पेशाब कर दिया था। इस घटना पर श्याम बेनेगल ने फिल्म समर बनाई थी। आज 32 वर्ष बाद भी कुछ नहीं बदला। मध्य प्रदेश के सीधी ज़िले की शर्मनाक घटना एक झलक मात्र है। ऊँचीं जाति के दबंग का एक दलित किशोर पर सरेआम मूत्र विसर्जन करना तो दलितों के अपमान का बहुत छोटा उदाहरण है। अपने देश में महानगरों को छोड़ कर शायद ही कोई ऐसा प्रांत होगा जहां दलितों का अपमान, उनकी उपेक्षा या उन पर अत्याचार न होते हों। मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने तुरंत कड़ी दण्डात्मक कारवाई कर के सीधी ज़िले के दबंग प्रवेश शुक्ला को तो सबक़ सिखा दिया पर उससे उन लोगों पर कोई असर नहीं पड़ेगा जो अपनी जाति या राजनैतिक रसूख़ के चलते सदियों से दलितों पर अत्याचार करते आए हैं। सोशल मीडिया पर तो ऐसी खबर कभी-कभी ही वायरल होती है। पर ऐसी घटनाएं चौबीस घंटे पूरे देश में कहीं न कहीं होती रहती हैं। जिनका कभी संज्ञान भी नहीं लिया जाता।

देश की बात करने से पहले मैं अपना अनुभव साझा करना चाहूँगा। मेरा परिवार सनातन धर्म में दृढ़ आस्था रखता है। हम आचरण से शुद्ध रह कर धार्मिक कार्यों में रत ब्राह्मणों का पूरा सम्मान करते हैं। पर हमारे परिवार में इतनी मानवीय संवेदना भी है कि हम दलितों के साथ भी समान व्यवहार करते हैं। इस कारण हमें बीस बरस पहले एक विचित्र परिस्थिति का सामना करना पड़ा। हमारे वृंदावन आवास में हमारी माँ की सेवा के लिए जो कर्मचारी तैनात था वो नारायण नाम का बृजवासी जाटव था। मेरी माँ धर्मनिष्ठ व संस्कृत की विद्वान होते हुए भी नारायण से हर तरह की सेवा लेती थीं। जैसे पूजा या भोजन की तैयारी। उनके इस आचरण से वृंदावन के हमारे शुभचिंतक कुछ ब्राह्मण परहेज़ करते थे। जब वे हमारे घर कोई अनुष्ठान संपन्न कराने आते तो हमारे घर का जल भी नहीं पीते थे। ऐसा कई वर्ष तक चला। न उनके आग्रह पर हमने नारायण को हटाया और न ही ब्राह्मणों के सम्मान में कोई कमी आने दी। पर इस तरह यह विरोधाभासी स्थिति तब तक चलती रही जब तक नारायण नौकरी छोड़ कर अपने गाँव चला नहीं गया। उसके बाद ही उन ब्राह्मणों ने हमारे घर का भोजन और जल स्वीकार करना शुरू किया।

जो बुद्धिजीवी ब्राह्मणवादी व्यवस्था की कटु आलोचना करते हैं वो हमारी भी आलोचना करेंगे यह कहकर कि हमने दलितों के प्रति ऐसा भाव रखने वाले ब्राह्मणों का सम्मान क्यों किया? जो ब्राह्मणवादी व्यवस्था को सनातन धर्म का अभिन्न अंग मानते हैं वे इस बात की आलोचना करेंगे कि हमारी माँ ने एक दलित को रसोई और पूजा घर में प्रवेश क्यों करने दिया? दोनों की आलोचना का मेरे पास कोई उत्तर नहीं है। पर इतना मैं अवश्य कहना चाहूँगा कि लगभग आठ वर्षों तक यही व्यवस्था हमारे वृंदावन आवास पर चलती रही और इससे कोई तनावपूर्ण परिस्थिति पैदा नहीं हुई। शायद इसलिए कि हमने दोनों मान्यताओं के बीच संतुलन बना कर रखा।

अगर देश के स्तर पर बात करें तो हमारे प्रातः स्मरणीय पुरी शंकराचार्य मानवीय दृष्टिकोण रखते हुए भी सनातन धर्म के कर्म कांडों को जन्म से ब्राह्मणों का ही एकाधिकार मानते हैं। दूसरी तरफ़ गौड़ीय संप्रदाय के समर्थक श्री चैतन्य महाप्रभु ने धर्म और जाति की सीमाओं को लांघ कर, शुद्ध भक्ति से, वैष्णव धर्म की आचार संहिता का पालन करने वाले हर मनुष्य को सामाजिक अनुक्रम में ऊपर उठने का मार्ग प्रशस्त किया। उनका भाव था ‘हरि को भेजे सो हरि का होय’। इसी का परिणाम है कि गौड़ीय संप्रदाय या इस्कॉन में कृष्ण भक्ति करने वाले हर जाति, धर्म व देश से आकर शामिल हो गये। जिसकी कट्टर ब्राह्मणवादी कटु आलोचना करते हैं।

इसी तरह लगभग पाँच सौ वर्ष पूर्व महाप्रभु बल्लभाचार्य जी के और स्वामी हरिदास जी के शिष्यों में मुसलमान तक भक्त थे। एक हज़ार वर्ष पहले रामानुजाचार्य जी ने जो संप्रदाय चलाया उसमें भी ब्राह्मण जाति श्रेष्ठता और कड़े नियमों के मामले में कोई समझौता नहीं किया गया। उनकी जीवन लीला में एक प्रसंग आता है जब उनके एक शिष्य ने बाढ़ से घिरा होने के कारण किसी दलित के घर से भिक्षा में कच्ची सामग्री ले ली। जिससे रामानुजाचार्य जी बहुत दुखी हुए। तब उस शिष्य ने प्रायश्चित में अपने प्राण त्याग दिये। पिछले वर्ष हैदराबाद के निकट श्रद्धेय संत श्री चिन्नाजियर स्वामी ने रामानुजाचार्य जी की एक विशाल प्रतिमा की स्थापना की है जो आकार में विश्व की दूसरी सबसे बड़ी बैठी प्रतिमा है। इस तीर्थ स्थली का नाम स्वामी जी ने ‘समता स्थल’ रखा है। यानी यहाँ किसी से जाति के आधार पर भेद-भाव नहीं होगा।

ये तो रहा धार्मिक आस्था से जुड़े लोगों का आचार-विचार। पर भारत का बहुसंख्यक समाज ऐसी आस्थाओं से बंधा हुआ नहीं है। भारतीय समाज में जातिवाद की जड़ें बहुत गहरी हैं, विशेषकर गाँव में, जहां दलितों और पिछड़ी जाति के लोगों से भेद-भावपूर्ण व्यवहार किया जाता है। स्वयं को ऊँची जाति का मानने वाले इन समाजों को बराबरी का दर्जा देने को क़तई तैयार नहीं हैं। अगर कोई इन सीमाओं को तोड़ने का प्रयास करता है तो उसे गंभीर परिणाम भुगतने पड़ते हैं। पुलिस का रवैया भी इस भावना से काफ़ी प्रभावित रहता है। इसलिए दलितों को न्याय नहीं मिल पाता। परिस्थिति वहाँ और भी विकट हो जाती है जहां ख़ुद को ऊँची जाती का मानने वाले लोगों के पास धन या सत्ता का बल भी होता है। ऐसे में उनका अहंकार सातवें आसमान पर चढ़ कर बोलता है और वे दलितों को अमानवीयता की हद तक जा कर प्रताड़ित करते हैं। प्रवेश शुक्ला के मामले में शिवराज सिंह चौहान ने जो किया वो अगर पहले दिन से किया होता तो मध्य प्रदेश में दलितों पर पिछले वर्षों में जो हज़ारों अत्याचार हुए हैं वो न हुए होते, जैसा कि विपक्ष के नेता कमल नाथ का आरोप है। अगर हर नेता, मंत्री या मुख्य मंत्री दलितों पर अत्याचार करने वालों के ख़िलाफ़ कड़ी कारवाई करने लगे तो हालत सुधर सकती है। हालाँकि पारस्परिक समाजिक व्यवहार में समरसता लाना अभी दूर की कौड़ी है।

समाज के इस अभिशाप को भारत की रेल, बस और हवाई यातायात व्यवस्था ने काफ़ी हद तक तोड़ा है। इन यात्राओं के दौरान आमतौर पर कोई भी यात्री भोजन बेचने या परोसने वाले से उसकी जाति नहीं पूछता। इसी तरह सरकारी नौकरियों में आरक्षण और औद्योगीकरण ने भी समाज के इन दक़ियानूसी नियमों को काफ़ी हद तक तोड़ा है। मेरे जैसे लोगों के सामने द्वन्द इस बात का है कि सनातन धर्म में पूरी निष्ठा और आस्था रखते हुए भी कैसे इस अभिशाप को समाप्त किया जा सकता है?

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