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अरब डायरी- 8: किरण राव की ‘लापता लेडीज’ और घूंघट में दुल्हनों की अदला-बदली का घनचक्कर

आमिर खान की पूर्व पत्नी किरण राव की नई फिल्म ‘ लापता लेडीज ‘ को सऊदी अरब के जेद्दा में आयोजित तीसरे रेड सी अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह में दर्शकों ने काफी पसंद किया। आमिर खान और जियो स्टूडियो ने इस फिल्म को प्रोड्यूस किया है। इसी साल 8 सितंबर 2023 को टोरंटो अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह में इस फिल्म का वर्ल्ड प्रीमियर हुआ था। यह फिल्म अगले साल 5 जनवरी 2024 को भारतीय सिनेमा घरों में रीलिज होगी।

इस फिल्म समारोह में भारत से कुल तीन फिल्में दिखाई गई जिसमें दो हिंदी और एक पंजाबी की है। किरण राव की ‘ लापता लेडीज’ के साथ साथ करण जौहर और गुनीत मोंगा द्वारा निर्मित निखिल नागेश भट्ट की ‘ किल ‘ और टी सीरीज के भूषण कुमार और अन्य द्वारा निर्मित भारतीय मूल के कनाडाई फिल्मकार तरसेन सिंह की पंजाबी फिल्म ‘ डियर जस्सी ‘ को भी यहां काफी पसंद किया गया। ‘ डियर जस्सी ‘ को ‘ ओ माय गॉड -2’ के निर्देशक अमित राय ने लिखा है। किरण राव ने ‘ धोबी घाट ‘(2011) के बारह साल बाद कोई फिल्म बनाई है। बिप्लव गोस्वामी की कहानी के आधार पर इसे स्नेहा देसाई ने लिखा है। इसमें मुख्य भूमिकाएं रवि किशन, स्पर्श श्रीवास्तव,प्रतिभा रत्ना,नीतांशी गोयल, गीता अग्रवाल, छाया कदम, दुर्गेश कुमार, सत्येंद्र सोनी आदि ने निभाई है।

‘लापता लेडीज ‘ दो ग्रामीण औरतों की कहानी है जो शादी के बाद लाल जोड़े में अपने अपने पति के साथ ससुराल आते हुए ट्रेन में लंबे घूंघट के कारण खो जाती है। पहली दुल्हन फूल का पति भूल से दूसरे की दुल्हन को लेकर अपने गांव के रेलवे स्टेशन पर उतर जाता है । उसकी असली दुल्हन फूल ट्रेन में आंख लग जाने के कारण छत्तीसगढ़ के किसी पतीला रेलवे स्टेशन पर पहुंच जाती है जहां दूसरी दुल्हन को उतरना था। उस जमाने में उत्तर भारत के गांवों में भयानक पर्दा प्रथा थी और शादी से पहले लड़का और लड़की एक दूसरे को देख भी नहीं पाते थे। वह भटकती हुई एक नकली अपाहिज भिखारी और उसके दोस्त छोटू की मदद से रेलवे प्लैटफॉर्म पर चाय पकौड़े का दूकान चलानेवाली चाची के यहां शरण लेती है। चाची मर्दों के धोखेबाज़ चरित्र से जली भुनी बैठी है।उसे लगता है कि फूल के पति ने दहेज लेकर और सुहागरात मनाकर जानबूझकर उसे छोड़ दिया है। जबकि फूल हमेशा शादी वाला लाल जोड़ा पहने रहती है क्योंकि उसे यकीन है कि एक न एक दिन उसे खोजता हुआ उसका पति जब यहां आएगा तो इसी लाल जोड़े के कारण उसे पहचान लेगा। फूल को केवल अपने गांव का नाम याद है, पता ठिकाना नहीं। उस नाम के गांव हर जगह भरे पड़े हैं। उसे अपने पति और ससुराल का भी नाम पता ठिकाना नहीं मालूम। उस जमाने में गांव की औरतें अपने पति का नाम तक नहीं बोलती थी।

फूल का पति ससुराल से अपनी दुल्हन की विदाई कराकर मोटरसाइकिल, नाव, बस और ट्रेन से जब अपने गांव पहुंचता है और दुल्हन का घूंघट उठाया जाता है तो पता चलता है कि यह तो किसी दूसरे की दुल्हन है जो लंबे घूंघट के कारण गलती से यहां आ गई है। फूल का पति जब थाने में अपनी पत्नी की गुमशुदगी की रिपोर्ट लिखाने जाता है तो थानेदार ( रवि किशन) उससे फूल की फोटो मांगता है। उसके पास उसकी पत्नी के साथ शादी के समय खींचा गया एकमात्र ऐसा फोटो है जिसमें दुल्हन का चेहरा लंबे घूंघट से ढका हुआ है। अब समस्या है कि इन लापता औरतों की खोज कैसे की जाय।

फूल का पति जिस दूसरी दुल्हन को गलती से घर ले आया है उसकी भी रहस्यमय कहानी है। उसकी शादी उसकी मर्जी के खिलाफ एक अपराधी किस्म के बिगड़ैल से कर दी गई थी। वह उससे पीछा छुड़ाने की सोच ही रही थी कि फूल का पति उसे अपनी पत्नी समझ कर ले आया। वह सबसे पहले अपने मोबाइल का सिम कार्ड जलाकर नया सिमकार्ड डालती है जिससे उसके घर या ससुराल वाले उसे ढूंढ न पाए। पता चलता है कि वह कृषि विज्ञान की पढ़ाई करना चाहती है और शादी के गहने बेचकर अपनी बहन को चुपके-चुपके मनीआर्डर करती है। वह फूल के पति की कल्पना से फूल का एक गुमशुदगी का पोस्टर बनाती है। उसे सारे रेलवे स्टेशनों पर चिपका दिया जाता है। उसी पोस्टर की मदद से पतीला स्टेशन से फूल को खोज निकाला जाता है। फूल की जगह आई दूसरी औरत का पति भी उसे खोजता हुआ गांव के थाने पहुंचता है। पुलिस इंस्पेक्टर को सबके सामने रिश्वत देकर वह उसे जबरदस्ती ले जाना चाहता है। पर यहां सब लोग उसके खिलाफ हो जाते हैं। सबकी मदद से दूसरी औरत आजाद होकर अपनी पढ़ाई पूरी करने चली जाती है।

किरण राव की यह फिल्म बेशक सुखांत है पर भारतीय समाज में औरतों की दयनीय हालत पर सतत टिप्पणी करती है। फिल्म की मेकिंग कामेडी स्टाइल में तो है पर यथार्थवादी तरीके से फिल्माया गया है। सभी चरित्र बेहद स्वाभाविक लगते हैं। लड़के की मां ( गीता अग्रवाल) अपने पति पर हमेशा कटाक्ष करती रहती है। लड़के का बड़ा भाई शहर में सेक्यूरिटी गार्ड की नौकरी करता है और अपनी पत्नी और बच्चों को गांव में छोड़े हुए हैं। उसकी पत्नी उसका चित्र बनाकर तकिए के नीचे रखती है और छुप छुप के देखती रहती है। लड़के का दादा भी सेक्यूरिटी गार्ड की नौकरी से रिटायर होकर आया है। वह हमेशा आधी आंख खोलकर सोता है और नींद में बड़बड़ाता रहता है- जागते रहो। इलाके का विधायक एक चुनावी सभा में फूल के खो जाने की घटना को विरोधी दल की साज़िश और उनके द्वारा अपहरण बताता है। फिल्म में
प्रकट हिंसा तो कहीं भी नहीं है। लेकिन चुटीले अंदाज में काफी कुछ कहा गया है। बस एक ही बात खटकती है कि किरण राव ने कुछ ज्यादा ही निष्पाप भाव ( इनोसेंट) से गांव और ग्रामीण जनता को दिखाया है। भले ही इस फिल्म का समय 2001 के आस-पास का है और इलाका मध्य प्रदेश छत्तीसगढ़ का बार्डर है, पर इतना निष्पाप और सीधा सादा गांव तो आज कहीं नहीं बचा है।

अजित राय

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