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संध्या सूरी की हिंदी फिल्म ‘संतोष’ जिसे ब्रिटेन ने अपने देश से आस्कर अवार्ड के लिए भेजा

इसी साल 77 वें कान फिल्म समारोह के अन सर्टेन रिगार्ड खंड में फिल्म का शानदार प्रीमियर हुआ था. तब से लेकर आजतक यह फिल्म मुंबई फिल्म फेस्टिवल, गोवा फिल्म फेस्टिवल, रेड सी अंतरराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल जेद्दा (सऊदी अरब) सहित दुनिया भर के फिल्म समारोहों में दिखाई जा रही है.

Sabdhya Suri's Film Santosh

यह एक चमत्कार ही माना जाएगा कि संध्या सूरी की हिंदी फिल्म ‘संतोष’ को ब्रिटेन ने सैकड़ों अंग्रेजी फिल्मों को दरकिनार करते हुए आधिकारिक प्रविष्टि के रुप में आस्कर अवार्ड के लिए भेजा और यह फिल्म 85 देशों की फिल्मों के साथ प्रतियोगिता करती हुई दूसरे दौर की 15 फिल्मों में शामिल हो गई जबकि किरण राव की फिल्म ‘ लापता लेडीज ‘ पहले दौर में ही आस्कर अवार्ड की प्रतियोगिता से बाहर हो गई. ब्रिटेन से किसी हिंदी फिल्म का बेस्ट इंटरनेशनल फिल्म की श्रेणी में आस्कर अवार्ड के लिए भेजा जाना विश्व सिनेमा के इतिहास की संभवतः पहली घटना है. ‘संतोष’ संध्या सूरी की एक तरह से पहली फीचर फिल्म है. इसके पहले वे कुछ शार्ट फिल्म और डाक्यूमेंट्री बना चुकी है. इस फिल्म को लिखा भी संध्या सूरी ने हीं है. यह सच है कि संध्या सूरी का जन्म ब्रिटेन में हुआ है और वे ब्रिटिश नागरिक है. इस फिल्म के निर्माता भी मुख्यतः ब्रिटिश है, इसलिए तकनीकी रूप से ‘ संतोष ‘ एक ब्रिटिश फिल्म है पर भाषा, कहानी, अभिनेता, माहौल, लोकेल, शूटिंग और दूसरे पक्षों के लिहाज से यह एक खालिस भारतीय फिल्म है. इसी साल 77 वें कान फिल्म समारोह के अन सर्टेन रिगार्ड खंड में फिल्म का शानदार प्रीमियर हुआ था. तब से लेकर आजतक यह फिल्म मुंबई फिल्म फेस्टिवल, गोवा फिल्म फेस्टिवल, रेड सी अंतरराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल जेद्दा (सऊदी अरब) सहित दुनिया भर के फिल्म समारोहों में दिखाई जा रही है. संध्या सूरी ने इस फिल्म पर तब काम शुरू किया जब 2016 में उन्हें प्रतिष्ठित सनडांस स्क्रीन लैब परियोजना में शामिल किया गया. यह एक पूरी तरह से स्त्रीवादी फिल्म है जिसमें शहाना गोस्वामी और सुनीता रजवार ने मुख्य भूमिकाएं निभाई हैं. इससे पहले कि हम फिल्म पर बात करें इस फिल्म के छायाकार ( डीओपी) लेनर्ट हिल्लेज की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने बहुत उम्दा काम किया है. उन्होंने कैमरे में एक एक दृश्य का ऐसा यथार्थवादी चित्रण किया है कि वे खुद बहुत कुछ कहते हैं. कुएं से दलित लड़की की लाश निकालना, मेरठ के मटमैले इलाके में पुलिस की रेड, शव गृह से लाश को पोस्टमार्टम के लिए ले जाना महिला ग्राम प्रधान के घर पुलिस की तहकीकात या ड्यूटी के दौरान मक्के के खेत में सबसे छुपकर संतोष का खुले में मजबूरन पेशाब करना.

संतोष बाल्यान पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर के एक गांव की साधारण लड़की है जिसका पति पुलिस का सिपाही है. चूंकि उसने प्रेम विवाह किया है इसलिए शादी के बाद वह संतोष सैनी हो गई है. एक दिन अचानक उसे खबर मिलती है कि उसका पति ड्यूटी पर मारा गया है. उसके ससुराल वाले उसे अपने साथ रखने को तैयार नहीं है. संतोष के मायके के लोग उसे विदा कराने आए हैं. फिल्म यहीं से शुरू होती है. लेकिन मुश्किल यह है कि वह यहां भी अधिक समय तक नहीं रह सकती. वह प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करना चाहती है. वह पुलिस प्रशासन को अर्जी देती है कि उसके पति के सरकारी आवास में उसे रहने की अनुमति दी जाय. पुलिस अधिकारी कहता है कि यह संभव नहीं है पर उसे अपने मृत पति की जगह सिपाही की नौकरी मिल सकती है. इस तरह उसे पुलिस लाइन में एक सरकारी आवास मिल सकता है. वह पुलिस में भर्ती हो जाती है. अब यहां से फिल्म एक ऐसी अंतहीन दिशा में मुड़ती है जिसमें भ्रष्टाचार, जाट- दलित और हिन्दू मुस्लिम तनाव, मर्दवादी पुलिस व्यवस्था में एक महिला पुलिस की बेबसी आदि है. तभी पता चलता है कि किसी ने एक किशोर दलित लड़की का बलातकार करके हत्या कर दी है और उसकी लाश दलित बस्ती के उस कुएं में फेंक दी है जहां से वे लोग पानी लेते हैं. पुलिस प्रशासन एक रहस्यमय महिला पुलिस इंस्पेक्टर मिसेज शर्मा और संतोष को उस दलित लड़की की हत्या की जांच का जिम्मा सौंपती है. मिसेज शर्मा का शक उस मुस्लिम लड़के पर जाता है जिससे उस लड़की का संपर्क था और फोन पर मैसेज का आदान-प्रदान था. वह लड़का उस दिन से डरकर भाग गया है. मिसेज शर्मा पता लगाकर संतोष के साथ मेरठ के एक मटमैले इलाके के होटल में छापा मारकर उस निर्दोष मुस्लिम लड़के को पकड़ लेती है जो उस समय जूठे बर्तन मांज रहा था. उसे एक वीरान खंडहर में ले आकर मुजफ्फरनगर और मेरठ की पुलिस टार्चर करती है और जुर्म कबूलने को कहती हैं. उधर पुलिस प्रशासन प्रेस कॉन्फ्रेंस कर दावा करता है कि अपराधी पकड़ा गया है. इसी बीच पुलिस टार्चर के दौरान उस निर्दोष मुस्लिम लड़के की मौत हो जाती है . इस पूरी प्रक्रिया में संतोष केवल मूक द्रष्टा बनकर रह जाती है.

पोस्टमार्टम के बाद उस दलित लड़की के कानों की बालियां देने संतोष जब उसके घर जाती है तो दर्शकों का दिल दहल जाता है. उसके अशक्त मां बाप का दुःख और मुस्लिम लड़के के मां-बाप की पीड़ा सिनेमा के पर्दे से निकलकर दर्शकों के दिलों पर छा जाता है. फिल्म में न तो प्रत्यक्ष हिंसा है सिवाय टार्चर वाले दृश्य के जिसमें एक पुलिसकर्मी नीचे गिरे हुए मुस्लिम युवक पर खड़े होकर पेशाब करता है न ही सीधे सीधे राजनीतिक टिप्पणी की गई है. पूरी फिल्म मानवीय संवेदनाओं की धीमी आंच पर पकती है जिसमें जाति धर्म और समुदाय के सवाल बहुत पीछे छूट जाते हैं.

संतोष को पता है कि उस दलित लड़की से बलात्कार और हत्या का असली मुजरिम जाट महिला ग्राम प्रधान का पति है. संतोष जब आखिरी बार प्रधान के घर जाती है तो उसकी छोटी बच्ची खेल खेल में उसे बता देती है कि हत्या वाले दिन वह दलित लड़की यहां आई थी. तभी प्रधान का पति आ जाता है और संतोष को यहां आने के लिए धमकाने लगता है. एक दृश्य में आधी रात को महिला पुलिस क्वार्टर के बरामदे में मिसेज शर्मा और संतोष की मुलाकात हैं. उन दोनो का संवाद पुलिस व्यवस्था के साथ साथ जाति व्यवस्था की भी पोल खोलने के लिए काफी है.

संतोष फैसला करती है कि अब उसे पुलिस कालोनी में नहीं रहना हैं. वह अपनी पुलिस की कड़क वर्दी धुलवाकर बिस्तर पर रख देती है. वह लड़कियों का सामान्य रंगीन सलवार कमीज़ पहन कर ट्रेन से अपने घर लौट रहीं हैं.

-भारत एक्स्प्रेस



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