सुप्रीम कोर्ट.
चाइल्ड पोर्नोग्राफी से जुड़े मामले में केरल हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ दायर याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने आरोपी को नोटिस जारी कर 2 सप्ताह में जवाब मांगा है. केरल हाई कोर्ट ने अपने फैसले में कहा था कि पोर्न अगर अकेले देख रहे हैं तब ये अपराध नहीं है, लेकिन दूसरे को भी दिखा रहे हैं तो फिर ये गैर कानूनी है. जिसके खिलाफ बचपन बचाओ आंदोलन नामक एनजीओ की ओर से याचिका दायर की गई है. जिसपर सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ इस मामले में सुनवाई कर रही है.
“प्राइवेट में अश्लील सामग्री देखना अपराध नहीं”
केरल हाई कोर्ट ने अपने फैसले में कहा था कि अगर कोई व्यक्ति निजी तौर पर अश्लील फोटो या वीडियो देख रहा है तो ये आईपीसी की धारा 292 के तहत अपराध नहीं है. लेकिन अगर वो किसी दूसरे को अश्लील फोटो या वीडियो दिखा रहा है या उसे सार्वजनिक रूप से दिखाने की कोशिश कर रहा है तो फिर ये धारा 292 के तहत अपराध होगा.
फैसला रखा था सुरक्षित
इससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने मद्रास हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ दायर याचिका पर सुनवाई के बाद फैसला सुरक्षित रख लिया था. कोर्ट ने सुनवाई के दौरान कहा था कि हो सकता है कि किसी बच्चे का अश्लील सामग्री देखना अपराध न हो, लेकिन अश्लील सामग्रियों में बच्चों का इस्तेमाल किया जाना गंभीर चिंता का विषय है. यह अपराध हो सकता है.
बता दें कि मद्रास हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ जस्ट राइट्स फॉर चिल्ड्रेन एलायंस ऑफ और बचपन बचाओ आंदोलन की ओर से याचिका दायर की गई है. ये एनजीओ बेसहारा बच्चों के कल्याण के लिए काम करते हैं. पिछली सुनवाई में बचपन बचाओ आंदोलन की ओर से पेश वरिष्ठ वकील एच एस फुल्का ने कहा था कि पॉक्सो एक्ट कहता है कि अगर ऐसा कोई वीडियो या फोटो है भी तो उसे तुरंत डिलीट किया जाना चाहिए, लेकिन इस मामले में आरोपी लगातार उस वीडियो को देख रहा था. उसके पास दो साल से ये वीडियो है और उसे लगातार देख रहा था.
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गौरतलब है कि मद्रास हाईकोर्ट ने अपने फैसले में कहा था कि पोक्सो एक्ट और सूचना तकनीकी कानून के तहत महज चाइल्ड पोर्नोग्राफी को देखना या डाउनलोड करना अपराध नहीं है. विगत 11 जनवरी को हाई कोर्ट ने 28 वर्षीय एक आरोपित को आपराधिक मामले से बरी भी कर दिया था. उस पर अपने मोबाइल फोन पर बच्चों पर अश्लील विषय सामग्री को डाउनलोड करने का आरोप था.
मद्रास हाई कोर्ट ने कहा था कि आजकल बच्चे अश्लील सामग्रियां देखने की गंभीर समस्या से जूझ रहे हैं और समाज को वैसे बच्चों को दंडित करने के बजाय शिक्षित करने को लेकर पर्याप्त परिपक्वता दिखानी चाहिए. अदालत ने कहा था कि सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम 2000 के तहत ऐसी सामग्री को केवल देखना अपराध की श्रेणी में नहीं आता है.
-भारत एक्सप्रेस