
नई दिल्ली: वर्ल्ड बुक फेयर में आयोजित खुसरो फाउंडेशन के बुक लॉन्च इवेंट में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (NSA) अजीत डोभाल बतौर चीफ गेस्ट शरीक हुए. यहां उन्होंने खुसरो फाउंडेशन द्वारा प्रकाशित तुर्कियन-अमेरिकन स्कॉलर-ऑथर अहमत टी. कुरू की पुस्तक “Islam Authoritarianism: Underdevelopment- A Global and Historical Comparison” के हिंदी संस्करण के विमोचन के दौरान “इस्लाम, तानाशाही और अविकास” पर चर्चा की.
डोभाल ने संघर्ष और उसके समाधान पर ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता पर जोर देते हुए कहा, “स्टेट और सोसाइटीज द्वारा आत्ममंथन हमेशा महत्वपूर्ण रहा है.”
‘आत्ममंथन देर से करेंगे तो बहुत पिछड़ जाएंगे’
डोभाल ने हॉल में श्रोताओं के समक्ष बोलते हुए कहा, “रिलीजन या स्टेट के प्रति विश्वास को कभी भी समझौता नहीं करना चाहिए. हमें अपने दिमाग को बंद नहीं होने देना चाहिए. यदि आप आत्ममंथन नहीं करेंगे तो आप समय और दिशा खो देंगे. यदि यह बहुत देर से किया गया, तो आप पीछे रह जाएंगे.”
किताब के विषय पर डॉ. कुरू के सामने बोलते हुए डोभाल ने कहा, “स्टेट और रिलीजन के बीच संबंध की यह घटना केवल इस्लाम तक सीमित नहीं है, हालांकि अब्बासी शासन में राष्ट्र और धर्माचार्यों की भूमिका को लेकर स्पष्टता थी.”
‘रिलीजन और स्टेट के बीच संघर्ष चलता रहेगा’
उन्होंने कहा कि रिलीजन और स्टेट के बीच संघर्ष चलता रहेगा, लेकिन महत्वपूर्ण यह है कि क्या हम समाधान की ओर बढ़ रहे हैं. उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा, “हिंदू मजहब में यह संघर्ष ध्यान और शास्त्रार्थ – विद्वानों और ज्ञानी लोगों के प्रतिस्पर्धात्मक विचारों या मजहबों के बहसों के माध्यम से हल किया गया.”
उन्होंने यह भी कहा कि मजहब-आधारित संघर्ष (Religion-Based Conflicts) अनिवार्य हैं क्योंकि सभी विचारधाराएँ प्रतिस्पर्धी होती हैं, और यदि वे प्रतिस्पर्धा नहीं करेंगी तो वे रुक जाएंगी और अंततः नष्ट हो जाएंगी. हालांकि, संघर्षों के बढ़ने से बचने के लिए यह महत्वपूर्ण है कि हम विचारों के मुक्त प्रवाह की अनुमति दें और ठहराव से बचें.
उन्होंने कहा, “वे पीढ़ियाँ जो ‘बॉक्स से बाहर’ सोचने में असमर्थ रहीं, वे रुक गईं.”
इस्लाम का उदय और प्रिंटिंग प्रेस का दौर
इतिहास से उदाहरण देते हुए डोभाल ने कहा, “प्रिंटिंग प्रेस को अपनाने के खिलाफ प्रतिरोध एक उदाहरण है, जहां प्रतिरोध पादरियों से आया था. उन्होंने सोचा कि प्रिंटिंग प्रेस के आगमन से इस्लाम का जो अर्थ वे वास्तविक मानते थे, वह ठीक से व्याख्यायित नहीं किया जाएगा.”
इस अवसर पर पूर्व मंत्री, लेखक और पत्रकार एम. जे. अकबर ने कहा कि मुसलमानों को लोकतंत्र से अधिक एक ज्ञान-आधारित समाज की आवश्यकता है, जैसा कि मुस्लिम शासक काल में था. उन्होंने कहा कि मुस्लिम साम्राज्यों का पतन इस कारण हुआ क्योंकि उन्होंने ज्ञान साझा करना बंद कर दिया था.
‘मुसलमानों की असली समस्या’ पर एम. जे. अकबर
इस्लाम के संदर्भ में, अकबर ने कहा, “सूफीवाद व्यावहारिक है क्योंकि यह हमें एक ऐसा संबंध सिखाता है जो शत्रुतापूर्ण नहीं है.” उन्होंने यह भी कहा कि मुसलमानों की असली समस्या यह है कि वे मॉडर्निटी और स्टेट को समझने में असमर्थ हैं.
एम. जे. अकबर ने डॉ. कुरू को पाकिस्तान पर ध्यान केंद्रित करने का सुझाव दिया, जो इस बात का एक आदर्श उदाहरण है कि कैसे मजहब का उपयोग एक देश को विभाजित करने और संस्थागत और पीढ़ीगत संघर्ष उत्पन्न करने के लिए किया गया.
‘लोकतंत्र में छिपा है मुसलमानों के पिछड़ेपन का समाधान’
इस अवसर पर डॉ. कुरू ने कहा कि मुसलमानों को अपनी नागरिकता को स्वीकार करना चाहिए – उनके अधिकारों और कर्तव्यों दोनों के लिए – ताकि उनकी पिछड़ेपन को समाप्त किया जा सके. उन्होंने कहा कि मुसलमानों के पिछड़ेपन का समाधान लोकतंत्र में छिपा है. किसी भी देश में बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक समुदायों को नागरिकता का सम्मान करना चाहिए. सभी को समान अधिकार मिलना चाहिए और अपने देश के प्रति कर्तव्यों का पालन करना चाहिए. उन्होंने यह भी कहा कि मुसलमानों ने तब अच्छा किया जब उन्होंने सहअस्तित्व पर विश्वास किया और विविधता को खुले दिल से स्वीकार किया.
तुर्कियन-अमेरिकी स्कॉलर-ऑथर अहमत टी. कुरू
तुर्की मूल के प्रोफेसर अहमत कुरू, जो संडेगो स्टेट यूनिवर्सिटी, USA में राजनीतिक विज्ञान के प्रोफेसर और इस्लामी और अरबी अध्ययन विभाग के निदेशक हैं, ने अपनी पुस्तक विमोचन के मौके पर अपने विचार साझा किए.
खुसरो फाउंडेशन के संयोजक डॉ. हाफिज़ुर रहमान ने कहा कि फाउंडेशन इस्लाम से जुड़े झूठे कथनों को चुनौती देने के लिए पुस्तकों के माध्यम से काम करता रहेगा. उन्होंने यह भी कहा कि फाउंडेशन बच्चों के लिए किताबों की एक श्रृंखला लाने पर काम कर रहा है.
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