जैक डोर्सी व पीएम नरेंद्र मोदी
पिछले कुछ दिनों में भारत के लोकतंत्र को लेकर अचानक ही दुनिया की दिलचस्पी बढ़ी है। यह जितनी अप्रत्याशित लगती है, उससे कहीं ज्यादा प्रायोजित दिखती है। सबसे ताजा मामला सोशल ब्लॉगिंग साइट ट्विटर के पूर्व सीईओ जैक डोर्सी का है जिनकी भारत के लोकतंत्र पर टिप्पणी ने देश की राजनीतिक जमात को आमने-सामने ला दिया है। यू-ट्यूब को दिए एक इंटरव्यू में डोर्सी ने भारतीय लोकतंत्र पर अपनी जो राय दी है उसे पढ़-सुनकर पहला भाव तो यही आता है कि वो तथ्यों पर आधारित न होकर आरोपों पर आश्रित हैं। डोर्सी के अनुसार भारतीय लोकतंत्र सरकारी नियंत्रण में है जहां अभिव्यक्ति की आजादी सत्ता की कृपा पर टिकी है। इस दायरे से बाहर की हर आवाज को रोककर या फिर दबाकर-कुचलकर सेंसर कर दिया जाता है। भारत के लोकतंत्र पर डोर्सी के इस लंबे-चौड़े कटाक्ष का सार यह कहने की कोशिश है कि लोकतंत्र के नाम पर भारत में जो दिखता है, वो असलियत नहीं बल्कि फरेब है। लोकतंत्र पर डोर्सी की इस लकीर ने भारतीय सियासत को दो खेमों में बांट दिया है। उसमें एक तरफ सत्ता पक्ष है जो डोर्सी को झूठा करार दे रहा है, तो दूसरी तरफ विपक्ष है जिसे बैठे-बिठाए सरकार को घेरने का हथियार मिल जाने से डोर्सी में लोकतंत्र के मसीहा की छवि दिखाई दे रही है।
ये सब साबित करने के लिए डोर्सी ने किसान आंदोलन का हवाला दिया है। भारत में किसान आंदोलन दिसंबर 2020 में शुरू हुआ और 2021 के अंत में खत्म हो गया। इस दौरान नवंबर 2021 तक डोर्सी ट्विटर के सीईओ थे। उनके अनुसार किसान आंदोलन के दौरान भारत सरकार ने ट्विटर पर आंदोलन के समर्थकों के ट्विटर अकाउंट बंद करने का दबाव बनाया और ऐसा नहीं करने पर ट्विटर के कर्मचारियों के घरों पर छापे मारने और भारत में ट्विटर के दफ्तर को बंद करने की धमकी दी थी। हालांकि सरकार की ओर से इन आरोपों को सिलसिलेवार तरीके से खारिज किया गया है। इसके अनुसार ट्विटर के दफ्तर पर न तो कभी छापा मारा गया और न ही किसी को जेल भेजा गया। आरोपों के उलट सरकार का कहना है कि डोर्सी के कार्यकाल में ट्विटर खुद मनमानी, भेदभाव और पक्षपातपूर्ण व्यवहार कर रहा था। न तो वह भारतीय कानूनों को मान रहा था, न ही गलत सूचनाएं हटाने के लिए तैयार था। लेकिन देश के राजनीतिक विपक्ष ने सरकार की दलील से ज्यादा डोर्सी के आरोपों पर भरोसा व्यक्त किया है। कांग्रेस के अनुसार डोर्सी के पास झूठ बोलने की कोई वजह नहीं दिखती। वहीं, शिवसेना-उद्धव गुट ने तो सीधे-सीधे प्रधानमंत्री पर ही निशाना साधते हुए पूछ लिया है कि देश में डेमोक्रेसी है या मोदीक्रेसी?
सियासी बयानबाजियों का अपना अलग मकसद, अलग मैदान होता है लेकिन राजनीति से परे हटकर निरपेक्ष आकलन करें तो डोर्सी के बयान पर कितना भरोसा किया जाना चाहिए? वो भी तब जबकि किसान आंदोलन के दौरान उनकी गतिविधियां स्पष्ट तौर पर एक खेमे के पक्ष में दिखाई दे रहीं थीं – जैसे किसान आंदोलन के समर्थन में उनकी ओर से सिंगर रिहाना और ग्रेटा थनबर्ग समेत वाशिंगटन पोस्ट के जर्नलिस्ट के ट्वीट को लाइक करना। कोई भी व्यक्ति किसी आंदोलन का पक्ष लेने के लिए स्वतंत्र है लेकिन डोर्सी के मामले में इसे इसलिए आपत्तिजनक माना जाएगा क्योंकि उन्होंने ऐसा ट्विटर के मुखिया रहते हुए किया। इसलिए सवाल उठना लाजिमी है कि अगर ट्विटर के मुखिया रहते हुए डोर्सी और उनकी टीम किसी विचारधारा को ट्रेंड कराने में जुटी थी तो उसे निष्पक्ष कैसे कहा जा सकता है? इतना ही नहीं, ट्विटर ने साल 2021 में किसान नेता राकेश टिकैत का अकाउंट भी ऐसे समय वेरिफाई किया था जब ट्विटर की ओर से किसी भी अकाउंट होल्डर को ये सुविधा देने पर पाबंदी लगी हुई थी।
करीब-करीब इसी समय दिल्ली पुलिस ने भी खुलासा किया था कि 13 से 18 जनवरी के बीच केवल पांच दिनों में पाकिस्तान में 308 ट्विटर हैंडल बने थे, जो भारत में किसान आंदोलन को तूल देने में जी-जान से जुटे थे। लेकिन ट्विटर की ओर से इस पर एक्शन लेने में भी हीला-हवाली हुई।
डोर्सी का आंदोलन समर्थकों के ट्विटर अकाउंट बैन करने का दावा भी सच्चाई की कसौटी पर खरा नहीं उतरता है। इसके विपरीत ट्विटर ने अपनी मनमर्जी चलाते हुए तत्कालीन उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू और तत्कालीन कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद के अकाउंट बैन किए थे और गृहमंत्री अमित शाह की डीपी हटा दी थी। यदि सरकार की ओर से दबाव होता तो क्या ट्विटर ऐसा करने की हिमाकत कर सकता था। इस दौरान कांग्रेस और राहुल गांधी का ट्विटर अकाउंट भी कुछ समय के लिए ब्लॉक किया गया था। हालांकि कांग्रेस ने इसके लिए ‘सरकार के दबाव’ वाली थ्योरी को अपनी आलोचना का हथियार बनाया था।
वैसे ट्विटर के कर्ताधर्ता रहते हुए डोर्सी पर भारत-विरोधी लोगों से घिरे होने के आरोप भी लगे थे। इनमें ट्विटर की उस वक्त की लीगल और नीति निर्माण टीम की प्रमुख विजया गड्डे का नाम भी शामिल है। विजया गड्डे का रसूख कुछ ऐसा था कि उनके आदेश पर ही अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का अकाउंट बैन किया गया था। विजया गड्डे भारत में वामपंथी विचारधारा के समर्थकों के काफी करीब थीं। एक बार भारत दौरे पर उनके कहने पर ही डोर्सी कथित ब्राह्मणवादी पितृसत्ता की आलोचना का प्लेकार्ड लहराते दिखे थे। हालांकि विवाद बढ़ने पर विजया को इस करतूत के लिए माफी भी मांगनी पड़ी थी।
ट्विटर के अधिग्रहण के बाद एलन मस्क ने ‘ट्विटर फाइल्स’ के नाम से जो खुलासे किए थे, वो भी डोर्सी को कठघरे में खड़े करते हैं। इस खुलासे के अनुसार डोर्सी के दौर में ट्विटर ने एक ऐसी पलटन बना रखी थी जो अपनी विचारधारा से मेल नहीं खाने वाले लोगों की सूची बनाती थी और इन्हें ब्लैक लिस्ट कर देती थी। ऐसे लोगों के ट्वीट ट्रेंड नहीं हो पाते थे और उनकी रीच को भी सीमित ही रखा जाता था। इस मनमानी नीति का नाम ‘विजिबिलिटी फिल्टरिंग’ रखा गया था और इसे इतने गुप्त तरीके से अंजाम दिया जाता था कि यूजर को भी इसकी भनक भी नहीं लग पाती थी। एक तरह से ये पलटन ट्विटर को अपनी उंगलियों पर चला रही थी और अपनी मर्जी का नैरेटिव सेट कर रही थी। रीच, लाइक, री-ट्वीट से लेकर ट्रेंडिंग और ओपिनियन बिल्डिंग जैसे तमाम हथियारों पर इस टीम का एकाधिकार हो गया था। यानी अगर इस पलटन को ज्यादा समय और मौका मिला होता तो ये अपनी सनक पूरी करने के लिए किसी भी देश के अंदर कलह जैसे हालात या दो देशों के बीच तनाव चरम पर पहुंचा सकते थे।
एक अहम प्रश्न और? डोर्सी जिस कथित अनुभव का दावा कर रहे हैं, वो दो साल पुराना है। दो साल तक उन्होंने अपने होंठ किस मजबूरी में सिल रखे थे? और आज जब बंद होंठ खुले हैं तो उसके पीछे की प्रेरणा क्या है? कहीं इस टाइमिंग की वजह प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का अमेरिकी दौरा तो नहीं है जिसके इंतजार में पलक-पांवड़े बिछाए बैठा व्हाइट हाउस पहले ही भारत के लोकतंत्र की जीवंतता का मुरीद हो चुका है। भारत सरकार पर लोकतंत्र को खिलौना बनाने का आरोप लगाने वाले डोर्सी कहीं खुद उस एंटी इंडिया गैंग का खिलौना तो नहीं बन गए हैं जो दुनिया में भारत के निरंतर बढ़ रहे कद को रोकने के लिए नित-नए हथकंडे अपनाता रहता है। वैसे यह बात भी विचारणीय है कि अगर भारत का लोकतंत्र वैसा ही होता जैसा डोर्सी बता रहे हैं, तो क्या उनके खड़े किए बखेड़े पर हमें विपक्ष का ऐसा खुला विरोध सुनाई दे पाता?
-भारत एक्सप्रेस