अडानी ग्रुप के चेयरमैन गौतम अडानी
Supreme Court on Adani: यदि कोई सुप्रीम कोर्ट कमिटी की रिपोर्ट ध्यान से पढ़ेगा तो साफ हो जाएगा कि यह रिपोर्ट न सिर्फ अडानी ग्रुप को क्लीन चिट दे रही है, बल्कि दो मामलों में SEBI को भी दोषी ठहराती है. मसलन, अडानी स्टॉक में निवेश किए गए FPI के खिलाफ संदिग्ध और कानूनी रूप से अपुष्ट पड़ताल और एक ऐसी संरचना की दिशाहीन तरीके से जांच है, जो वजूद में ही नहीं है.
चलिए मैं इस मामले में विस्तार से प्रकाश डालता हूं. हिंडनबर्ग रिपोर्ट ने अडानी ग्रुप के खिलाफ तीन बड़े आरोप लगाए.
क. समूह कंपनियों में विदेशी निवेशकों के माध्यम से धन की राउंड-ट्रिपिंग
ख. संबंधित पार्टियों से लेनदेन नियमों का उल्लंघन
ग. अडानी समूह की कंपनी के शेयरों की कीमतों में हेरफेर
राहुल गांधी, कांग्रेस और तमाम विपक्षी नेताओं ने मोदी सरकार को पटखनी देने के लिए हिंडनबर्ग रिपोर्ट का इस्तेमाल किया. उनका सीधा तर्क था- मोदी सरकार अडानी ग्रुप को बचा रही है. उन्होंने यह भी कहा कि एक स्वतंत्र जांच से मोदी और अडानी के बीच नापाक गठबंधन का भी पर्दाफाश हो जाएगा. मामला भारत के सुप्रीम कोर्ट में पहुंचा. सर्वोच्च न्यायालय ने एक विशेषज्ञ समिति बनाने के लिए फौरी कदम उठाया, जिसमें वित्तीय, व्यावसायिक और नियामक क्षेत्रों से जुड़े काबिल और कट्टर ईमानदार छवि वाले लोग शामिल थे. इस दौरान समिति ने एक व्यापक, मगर समयबद्ध जांच की. जांच में जो अहम बात सामने आई वो नीचे है-
1. स्वमित्व और अपार्दर्शी संरचना: अडानी स्टॉक्स में निवेश किए गए FPI की कानूनी रूप से अपुष्ट जांच
12 एफपीआई (Foreign Portfolio Investors) और एक विदेशी संस्था ने मनी लॉन्डरिंग एक्ट के तहत अपने फैसलों को नियंत्रित करने वाले सही व्यक्तियों की पहचान करके लाभार्थियों की घोषणा की है. 2018 में “अपारदर्शी संरचना” (Opaque Structure) से जुड़ा प्रावधान जिसके तहत हर सही व्यक्ति या ऑनर की पहचान जानने के लिए FPI की जरूरत थी, उसे हटा दिया गया.
2014 में संशोधित हुए FPI विनियम में “Ultimate Beneficial Owner” को “ Beneficial owner से रिप्लेस किया गया है, जिसे 31 दिसंबर 2018 से लागू किया गया. इस संशोधन से स्पष्ट हो गया कि FPI विनिमय 2014 के तहत जब भी ‘अल्टीमेट बेनिफिशल ऑनर’ की पहचान की मांग होगी, उसका मतलब बेनिफिशल ऑनर होगा, जैसा कि मनी लॉन्ड्रिंग एक्ट के 9वे नियम में अंकित है.
PMLA नियम के मुताबिक ऐसे अल्टीमेट ऑनर, नियंत्रक या व्यक्ति का निर्धारण जिसकी ओर से संबंधित इकाई द्वारा निवेश किया जाता है, ऐसी इकाई के किसी भी मालिक के लिए हिस्सेदारी 25% या इससे ज्यादा होनी चाहिए. गौरतलब है कि एंटी-मनी लॉन्ड्रिंग कानून के तहत ‘अल्टीमेट बेनिफिशल ऑनर’ की पहचान के लिए 25 फीसदी स्वामित्व सीमा को SEBI ने FPI के लिए अपने आवेदन में इसकी सीमा को 10% तक कम कर दिया.
24 मई, 2019 की एक रिपोर्ट में सेबी द्वारा गठित विशेषज्ञों के वर्किंग ग्रुप ने अपारदर्शी संरचना को पूर्ण रूप से हटाने की सिफारिश की. जिसके बाद 21 अगस्त 2019 को सेबी ने इस विनियम को हटाने का निर्णय लिया. वर्किंग ग्रुप ने अपनी सिफारिश में कहा, “ अपारदर्शी संरचना को अलग से परिभाषित करने की जरूरत नहीं है.” लिहाजा, इसे FPI विनियम से हटाया जा सकता है.
2019 में ओपेक स्ट्रक्चर को हटाने की सबसे बड़ी वजह यह थी कि हर अल्टीमेट बेनिफिशल ऑनर की जानकारी के लिए FPI की जरूरत पड़ती थी. लेकिन, अब इसे हटाने के बाद 10 प्रतिशत से अधिक होल्ड रखने वाले ऑनर को इस प्रक्रिया से गुजरने की जरूरत नहीं होगी. फिर भी SEBI ने इस मामले में 12 FPI और एक विदेशी संस्था के पीछे लगी रही. इस दौरान इन 13 विदेशी संस्थाओं के वास्तविक ऑनरशिप की जानकारी मांग रही थी. इससे साबित होता है कि कैसे अडानी के खिलाफ लेजिस्लेटिव पॉलिसी और जांच दो विपरीत दिशाओं में चले गए. गौरतलब है कि अडानी मामले में ओपेक स्ट्रक्चर हटाए जाने के बाद 12 FPI और एक दूसरे विदेशी संस्था के स्वामित्व का खुलासा करने और स्वामित्व को प्रमाणित करने के लिए कहा गया, जो कानूनी तौर पर सही नहीं है.
सेबी द्वारा पेश किए गए रिकॉर्ड FPI और अडानी ग्रुप के प्रमोटर्स के शेयरधारकों को नियंत्रित करने का इशारा करते हैं. अडानी ग्रुप ने पुष्टि की है कि उसके लिस्टेड शेयरों में निवेश के लिए FPI को उनके द्वारा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से को कोई धनराशि प्रदान नहीं की गई. यह कहा गया है कि एफपीआई के नियंत्रण वाले शेयरधारकों ने इसी तरह अडानी के साथ किसी भी कनेक्शन या फंडिंग की बात से इनकार किया. सुप्रीम कोर्ट की समिति ने इसे SEBI का रिपीटेड एक्सरसाइज बताया, जो नियम-कानून के बिल्कुल उलट था. यह एक प्रकार से बिना गंतव्य वाली यात्रा की तरह था.
सेबी के अनुरोध पर सीबीडीटी और ईडी ने भी जांच में भागीदारी से खुद को अलग कर लिया. सीबीडीटी ने समिति को बताया कि “फॉरेन जूरिसडिक्शन के लिए सामान्य अनुरोध व्यावहारिक नहीं हैं, क्योंकि इससे दुनिया की दूसरी एजेंसियों के बीच नकारात्मक बातें उठेंगी और भारत की बदनामी होगी. ऐसे अनुरोध की सराहना नहीं की जाती है”
ED ने समिति को बताया, ” जब तक की पीएमएलए के अंतर्गत आने वाले अपराधों पर शिकायत दर्ज नहीं की गई हो, तब तक ED ऐसे मामलों में कार्रवाई करने केलिए अधिकृत नहीं है. इस मामले में सेबी ने पीएमएलए के तहत कोई भी मामला दर्ज नहीं किया था. जहां तक अडानी के शेयरों में निवेश किए गए एफपीआई से संबंधित अधिक जानकारी मांगने का संबंध है, सेबी ने केमैन द्वीप, माल्टा, कुराकाओ, ब्रिटिश वर्जिन द्वीप समूह और बरमूडा में नियामकों से कुछ भी नहीं हासिल हुआ है. बहरहाल, इस तरह की जानकारी की जरूरत क्यों है, इस पर सेबी के पास कोई ठोस तर्क नहीं है. संक्षेप में सिक्यॉरिटी मार्केट रेगुलेटर को कुछ गलत होने का संदेह है, लेकिन संबंधित रेगुलेशन में विभिन्न शर्तों का अनुपालन भी शामिल है.
समिति के मुताबिक सेबी (SEBI) अडानी के खिलाफ प्रथम दृष्टया मामला बनाने में भी विफल रहा है. “प्रथम दृष्टया” मामले की प्रस्तुति वादी या अभियोजक की जिम्मेदारी है. एक बार प्रथम दृष्टया मामला दर्ज होने के बाद पूरा दारोमदार आरोपी पर स्थानांतरित हो जाता है. इस मामले को सिमिति ने मात्र शंका की संज्ञा दे डाली है. उसके मुताबिक नियामक अपने शको-सुबहा को साबित करने और उसे मुकदमें की शक्ल देने में विफल रहा है.
2. संबंधित पक्षों के लेन-देन: पिछले ट्रांजेक्शन को निशाना बनाने के लिए संभावित मानकों को लागू करना कानूनी रूप से गलत
हिंडनबर्ग रिपोर्ट ने 6,000 से अधिक संबंधित पक्षों के लेन-देन का उल्लेख किया और उनकी उपयुक्तता पर सवाल उठाए. इसके अतिरिक्त, बारह लेन-देन को संबंधित पार्टी लेनदेन के रूप में स्वीकार किया गया, जिसका खुलासा नहीं किया गया. मगर आरोप लगाया जाता है कि उनका भी खुलासा हुआ था. जहां तक आरोप के उपयुक्तता का संबंध है, समिति ने इसे सिर्फ एक पैराग्राफ के साथ खारिज कर दिया कि “बाजार द्वारा उपयुक्तता पर सवाल उठाना व्यावसायिक निर्णय पर आधारित एक राय हो सकती है, लेकिन कानूनी का कथित उल्लंघन नहीं हो सकता. अलग तरीके से कहें तो, अगर कोई सूचीबद्ध इकाई कानून का अनुपालन करती है, तो कानून के उल्लंघन की चर्चा की गुंजाइश समाप्त हो जाती है.
दूसरे शब्दों में कहें तो जो एक व्यक्ति के लिए उपयुक्त है, वह दूसरे को अनुचित लग सकता है. इसलिए असली सवाल यह है कि क्या कानून का उल्लंघन हुआ था? उस विवादास्पद बिंदु पर समिति ने निष्कर्ष निकाला कि कानून का कोई उल्लंघन नहीं हुआ है. दूसरे आरोप पर आते हैं जो संबंधित पक्ष के लेन-देन का खुलासा न करने का था, जिसे समिति ने इस मामले में लागू कानून की बारीकी से जांच की.
नवंबर 2021 में सेबी द्वारा “संबंधित पक्ष” और “संबंधित पक्ष लेन-देन” की शर्तों में काफी हद तक संशोधन किया गया था और एक स्थगित संभावित प्रभाव के साथ 1 अप्रैल, 2022 को कुछ बदलाव और 1 अप्रैल, 2023 को अन्य बदलाव किए गए थे.
इन संशोधनों में कंपनी अधिनियम, 2013 की धारा 89 के तहत सूचीबद्ध कंपनी में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से या लाभकारी हित के आधार पर 20% या उससे अधिक रखने वाले व्यक्तियों को शामिल करने के लिए “संबंधित पार्टी” की परिभाषा में संशोधन किया गया था. 1 अप्रैल, 2023 से प्रभावी समावेशन “संबंधित पार्टी” शब्द के दायरे में आएगा, जिनके पास सूचीबद्ध कंपनी का 10% या अधिक हिस्सा है. समिति ने कहा कि सेबी द्वारा अपनाया गया दृष्टिकोण स्पष्ट रूप से 1 अप्रैल, 2022 से स्थगित संभावित प्रभाव के साथ निर्धारित किया गया है. सूचीबद्ध कंपनी की सहायक कंपनी से जुड़े लेनदेन को सूचीबद्ध इकाई के साथ लेनदेन माना जाएगा. इसी तरह सेबी ने 1 अप्रैल, 2023 से स्पष्ट रूप से तय किया है कि एक असंबद्ध तीसरे पक्ष के साथ लेनदेन को संबंधित पक्ष के साथ लेनदेन माना जाएगा. लेन-देन का उद्देश्य संबंधित पक्ष को लाभ पहुंचाना है.
यदि पिछले लेन-देन तत्कालीन कानून के हिसाब से थे और बाद में परिवर्तन किए गए हैं, तो रिपोर्ट में कहा गया है कि इस तरह के पिछले लेन-देन की वैधता को खारिज नहीं किया जा सकता. सेबी की जांच इस बात पर आधारित है कि वह कानून की भावना का अनुसरण कर रही है. जिसमें समय-समय पर संशोधन होते रहे हैं, जिन्हें सेबी स्वयं विधिवत तरीके से लागू करती है.
3. स्टॉक में हेरफेर का कोई सबूत नहीं
समिति ने निष्कर्ष निकाला कि एक ही पक्ष के बीच कई बार कृत्रिम व्यापार या “वॉश ट्रेड” का कोई पैटर्न नहीं पाया गया. एक पैच में जहां कीमतों में इजाफा हुआ, वहां पर वो FPI जो जांच के अधीन रहे, शुद्ध विक्रेता थे. संक्षेप में कहा जाए तो इसमें गलत ढंग से व्यापार करने का कोई भी पैटर्न संज्ञान में नहीं आता है. सेबी ने यह भी पाया है कि कुछ संस्थाओं ने हिंडनबर्ग रिपोर्ट के प्रकाशन से पहले ही शॉर्ट पोजीशन ले ली और रिपोर्ट के प्रकाशन के बाद प्राइस गिरने पर अपनी स्थिति लाभ उठा लिया. दूसरे शब्दों में कहे तो अगर कोई हेर-फेर हुई तो वह शॉर्ट-सेलर्स के जरिए हुई, न कि अडानी से संबंधित संस्थाओं के द्वारा. संक्षेप में कहें तो सेबी सच्चा मिशन अडानी स्टॉक ड्रॉप से मुनाफा कमाने वाले छोटे-विक्रेताओं की जांच करना और इस प्रकरण के पीछे शामिल मुख्य साजिश को उजागर करना होगा.
(यह लेख भारत एक्सप्रेस के सीएमडी, चेयरमैन और एडिटर-इन-चीफ उपेंद्र राय के कॉलम अपफ्रंट का हिंदी अनुवाद है.)