साहिर लुधियानवी.
शायर साहिर लुधियानवी एक ऐसी अज़ीम शख़्सियत का नाम है, जिनकी शायरी ने उर्दू के साथ हिंदी भाषा को ही समृद्ध नहीं किया, बल्कि उनके लिखे गीतों ने हिंदी सिनेमा को कुछ ऐसे तराने दिए, जिनके बोल आज भी लोगों की ज़बां पर जब-तब तैर जाते हैं.
साहिर को 20वीं सदी के भारत के महानतम फिल्म गीतकार और शायरों में से एक माना जाता है. आज उनका जन्मदिन है इस अवसर पर हम उनकी ज़िंदगी के एक दिलचस्प पहलू को आपसे साझा कर रहे हैं, जिसका संबंध पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान से है.
अपना नाम ख़ुद रखा था
साहिर का जन्म 8 मार्च 1921 को पंजाब के लुधियाना शहर के करीमपुरा में एक मुस्लिम परिवार में हुआ था. उनके बचपन का नाम अब्दुल हयी था, हालांकि बताया जाता है कि 16 साल की उम्र में उन्होंने ख़ुद को एक नया नाम ‘साहिर’ दिया और अपने शहर लुधियाना के आधार पर इसके आगे उपनाम ‘लुधियानवी’ लगाकर ‘साहिर लुधियानवी’ हो गए.
‘साहिर’ शब्द उन्होंने कैसे चुना इसकी भी एक कहानी है. उन्हें कम उम्र से ही शायरी पढ़ने और लिखने में रुचि हो गई. मौलाना फ़ैज़ हरियाणवी के मार्गदर्शन में उन्होंने उर्दू और फ़ारसी का अध्ययन किया और इसमें पारंगत हो गए. इसी दौरान उनकी नज़र दार्शनिक और लेखक अल्लामा इक़बाल कुछ पंक्तियों पर पड़ीं, जिसमें उन्हें ‘साहिर’ शब्द मिला था.
साहिर का अर्थ होता है जादूगर. उस वक्त जब उन्होंने ख़ुद को ये नाम दिया था, तब शायद ही किसी ने सोचा होगा वह बड़ा होकर ये नौजवान शब्दों का जादूगर बन जाएगा.
पिता जमींदार थे
उनके पिता चौधरी फ़ज़ल मोहम्मद एक धनी जमींदार थे और उनका ताल्लुक गुज्जर समुदाय से था. साहिर को बचपन बहुत सुखद नहीं रहा. उन्हें अपने माता-पिता के मतभेदों का ख़ामियाजा भुगतना पड़ा. ऐसी जानकारी है कि वह मुश्किल से छह महीने के थे, जब उनकी मां सरदार बेगम ने उनकी पिता यानी अपने पति को छोड़ दिया. 1934 में साहिर के पिता ने दूसरी शादी कर ली और बेटे की कस्टडी के लिए मुकदमा दायर किया था.
एक युवा व्यक्ति के रूप में साहिर देश की सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक समस्याओं से गहराई से चिंतित थे. वह छात्र आंदोलनों में सक्रिय रूप से भाग लेते थे और कई सार्वजनिक रैलियों तथा बैठकों को भाषण भी दिया करते थे.
लुधियाना से लाहौर चले गए थे
युवावस्था में परिस्थितियों ने ऐसी करवट बदली कि वह साल 1943 में अपने शहर लुधियाने को छोड़कर लाहौर में बस गए. यहां दयाल सिंह कॉलेज में एडमिशन ले लिया. वह यहां छात्रसंघ के अध्यक्ष भी चुने गए. हालांकि कॉलेज की ज़िंदगी उन्हें बहुत दिनों तक रास नहीं आई और उन्होंने इसे जल्द ही छोड़ दिया.
पढ़ने-लिखने के आदत कारण उन्होंने उस समय की कुछ मशहूर उर्दू पत्रिकाओं जैसे- ‘अदब-ए-लतीफ़’, ‘शाहकार’ और ‘सवेरा’ के लिए काम भी किया. लाहौर में रहने के दौरान ही साल 1945 में उन्होंने ‘तल्ख़ियां’ (यानी कड़वाहट) पूरी की, जो उर्दू में उनका पहला प्रकाशित काम था.
वो शायरी जिस पर विवाद हो गया
लाहौर में अपने प्रवास के दौरान वह ऑल इंडिया स्टूडेंट्स फेडरेशन के अलावा प्रगतिशील लेखक संघ के सदस्य भी रहे थे. आगे चलकर जब उन्होंने साम्यवाद (Communism) को बढ़ावा देने वाले बयान दिए, तो यह पाकिस्तान की इस्लामी सरकार को नागवार गुज़रा. उनकी गिरफ्तारी का वॉरंट जारी कर दिया गया था.
भारत के बंटवारे और देश के रूप में पाकिस्तान के निर्माण के बाद 1949 में लाहौर (जो अब पाकिस्तान का हिस्सा था) में रहते हुए साहिर लुधियानवी ने एक क्रांतिकारी शायरी ‘आवाज़-ए-आदम’ लिखी, जिसमें ‘हम भी देखेंगे’ नाम का वाक्यांश आज के समय में भी याद किया जाता है. इस वाक्यांश को कई अर्थों में आशावादी मानने के साथ कुछ लोगों द्वारा भड़काऊ भी माना जाता. हालांकि इसका यह अर्थ निकाला गया कि कम्युनिज़्म का लाल झंडा लहराएगा.
इस ज़माने में पाकिस्तान सोवियत साम्यवाद को रोकने के पश्चिमी प्रयासों में अग्रणी देश बनने की रणनीतियों पर अग्रसर था. वह अमेरिका को यह विश्वास दिलाने की पुरजोर कोशिश कर रहा था कि वह उसकी साम्यवाद विरोधी नीति में एक मजबूत सहयोगी हो सकता है.
पाकिस्तान न केवल दक्षिण एशिया में बल्कि मध्य पूर्व में भी खुद को पश्चिम के लिए एक भरोसेमंद सहयोगी के रूप में चित्रित करना चाहता था.
बंटवारे के बाद भारत लौट आए
‘आवाज़-ए-आदम’ के प्रकाशित होने और ‘हम भी देखेंगे’ वाक्यांश के मशहूर होने के साथ ही साहिर को ख़ुफ़िया एजेंसियों ने धमकी दे दी और उन्हें भारत लौटने को मजबूर होना पड़ा. वास्तव में ‘हम भी देखेंगे’ साहिर की पाकिस्तान से विदाई और प्रतिरोध का प्रतीक बन गया था.
अंतत: देश के बंटवारे के बाद साल 1949 में साहिर लाहौर से भागकर दिल्ली आ गए और आठ सप्ताह के बाद तत्कालीन बंबई (अब मुंबई) शहर चले गए. वह यहां के अंधेरी इलाके में रहे. वहां उनके पड़ोसियों में कवि और गीतकार गुलज़ार और उर्दू साहित्यकार कृष्ण चंदर शामिल थे.
फिल्मों में काम की शुरुआत
बंबई आने बाद एक गीतकार के रूप में साहिर के काम ने उन्हें वित्तीय स्थिरता प्रदान की. उन्होंने साल 1949 में आई फिल्म ‘आजादी की राह पर’ में चार गानों के साथ हिंदी सिनेमा की दुनिया में क़दम रखा. हालांकि ये गीत किसी का भी ध्यान आकर्षित करा पाने में सक्षम नहीं रहे.
इसके साल 1951 में एसडी बर्मन द्वारा संगीतबद्ध की गई फिल्म ‘नौजवान’ के गीतों से साहिर को पहचान मिली. साहिर की सबसे बड़ी सफलता ‘बाज़ी’ (1951) थी, जिसके संगीतकार बर्मन ही थे. साहिर को तब गुरुदत्त की टीम का हिस्सा माना जाता था. बर्मन के साथ साहिर की आख़िरी फिल्म 1957 में रिलीज़ ‘प्यासा’ थी.
इस फिल्म में गुरुदत्त ने विजय नाम के कवि का किरदार निभाया था. इस फिल्म के बाद साहिर और बर्मन कलात्मक मतभेदों के कारण अलग हो गए थे.
तमाम संगीतकारों के साथ काम किया
आरडी बर्मन के अलावा साहिर ने रवि, रोशन, खय्याम और दत्ता नाइक जैसे संगीतकारों के साथ काम किया. दत्ता नाइक साहिर के गीतों मुरीद थे. दोनों ने मिलकर मिलाप (1955), चंद्रकांता (1956), साधना (1958), धूल का फूल (1959), धर्मपुत्र (1961), नया रास्ता (1970) जैसी फिल्मों के लिए गीत और संगीत दिया था.
साहिर ने संगीत निर्देशक लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल के साथ ‘मन की आंखे’, ‘इज्जत’, दास्तान और यश चोपड़ा की ‘दाग़’ जैसी फिल्मों में भी काम किया, सभी में शानदार गाने हैं. लगभग 1950 से अपनी मृत्यु तक साहिर ने फिल्म निर्माता और निर्देशक बलदेव राज चोपड़ा के साथ भी काम किया था.
25 अक्टूबर 1980 को 59 साल की आयु में साहिर की अचानक हृदय गति रुकने से मृत्यु हो गई थी.
-भारत एक्सप्रेस
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