भारत एक्सप्रेस के सीएमडी उपेन्द्र राय.
इंडियन डेवलपमेंट फाउंडेशन (IDF) ‘IGNITE STEM PASSION: EMPOWERING SCIENCE TEACHERS’ कार्यक्रम का आयोजन किया. यह कार्यक्रम भारतीय विज्ञान शिक्षा में इनोवेशन और प्रेरणा के लिए समर्पित था. नई दिल्ली स्थित CSIR-नेशनल फिजिकल लेबोरेटरी में कार्यक्रम आयोजित किया गया.
उपेन्द्र राय को किया गया सम्मानित
आईडीएफ के इस कार्यक्रम में प्रमुख अतिथि के रूप में भारत एक्सप्रेस न्यूज नेटवर्क के सीएमडी एवं एडिटर-इन-चीफ उपेन्द्र राय शामिल हुए, जहां उन्हें सम्मानित किया गया. उन्होंने अपने संबोधन में कहा- मैं अभी तक जहां कहीं भी बोल पाया हूं, कोशिश रहती है कि मैं आत्मा से बोलू और आपकी आत्मा तक पहुंचे. जब हम सीएसआईआई के कैंपस में मौजूद हैं तो जाहिर है कि बात विज्ञान की होनी चाहिए, लेकिन ये भारत देश जो कभी बहुत वैज्ञानिक रहा, जिसके पुराणों में पुष्पक विमान तक की चर्चाएं रहीं. 5 हजार साल पहले जब महाभारत की लड़ाई हुई तो उसमें तमाम दिव्यास्त्रों, अग्नि अस्त्रों की चर्चा हुई, आज तमाम वैज्ञानिक उपलब्धियों के बावजूद भी, छोटी से छोटी टेक्नोलॉजी के लिए पश्चिम की तरफ देखना पड़ता है.
जो 5 हजार सालों का हमारा गौरवशाली इतिहास रहा, शायद पश्चिम की ओर हमें इसलिए देखना पड़ता है क्योंकि जो अल्लामा इकबाल की कविता है कि ‘कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी, सदियों रहा है दुश्मन दौरे जहां हमारा.’ ये बात भी बिल्कुल सही है कि कभी हमारी हस्ती थी, कभी हमें सोने की चिड़िया कहा जाता था, लेकिन धीरे-धीरे कैसे हमारी हस्ती मिटती चली गई और हम गरीब देशों में शुमार होने लगे? कैसे हंगर इंडेक्स में हमारा नाम आने लगा? कैसे करप्ट देशों की सूची में हमारा नाम शामिल होने लगा? जब इसके बारे में सोचते हैं तो बड़ी निराशा होती है. मैं कोई राजनेता नहीं हू कि यहां पर पैकेज देकर जाऊंगा या हौसले देकर जाऊंगा, लेकिन थोड़ा बहुत आज आपको जगाने की कोशिश जरूर करूंगा. जितना नुकसान तीन हजार साल की गुलामी ने नहीं किया, उतना नुकसान भारत देश में एक धारणा ने किया, और वह यह धारणा है-संसार, रुपया, पैसा, पद सब मोह माया है,और इस धारणा ने हमारी वैज्ञानिकता को भी अंदर तक डूबो दिया, जिस तरह से टाइटैनिक समंदर में डूब गया, उसी तरह से हमारी वैज्ञानिकता डूब गई. हम एक पूरी तरह से अंधविश्वास में भरोसा करने वाले देश बन गए.
बुद्ध ने कई खोज की- उपेन्द्र राय
उन्होंने आगे कहा कि जब इस देश में सप्तऋषियों की बात की जाती है, उनकी वैज्ञानिक खोजों की बात की जाती है, जब इस देश में भगवान बुद्ध और महावीर जैसे प्रमाणिक लोग पैदा हुए. आप लोग बुद्ध के आध्यात्म के बारे में जानते हैं, लेकिन शायद उनकी खोजों के बारे में नहीं जानते होंगे. इसलिए मैं आपको याद दिला देता हूं. आज के समय में जो पूरे जापान और चीन में एक्यूपंक्चर और एक्यूप्रेशर और तमाम बीमारियों को ठीक करने की कला या फिर जो आप नैचुरोपैथी आप देखते हैं ये सब बुद्ध की दी हुई चीजें हैं. बुद्ध से पहले उस तरह की चीजों को कोई नहीं ला पाया था. इसलिए बुद्ध बहुत बड़े साधक होने के साथ ही बहुत बड़े वैज्ञानिक भी थे. इसके अलावा बुद्ध ने एक और खोज की थी, जब उनके पिता उन्हें एक योद्धा के तौर पर एक राजा के तौर पर तैयार करना चाहते थे, तब बुद्ध ने नए तरीके ईजाद किए, कि आदमी को कैसे मारा जाए कि वो मरे नहीं और दोबारा वह चेतना में आ जाए. ये जितने भी जूडो-कराटे यी फिर शरीर के किसी विशेष जगह को दबा देने पर वह मूर्छित हो जाए. ये सारी खोजें बुद्ध की हैं.
तीन तलों पर जीता है मनुष्य
हालांकि बात यहां पर विज्ञान की हो रही है, इसलिए उसपर बात करेंगे. आदमी मूलत: तीन तलों पर जीता है. जो पहला तल है वह पशुओं का तल है. पशु जैसे पैदा होते हैं, वैसे बड़े हो जाते हैं. दूसरा तल है बुद्धों का. जो इस दुनिया में जिस संभावना के लिए आते हैं, उस संभावना को प्राप्त कर लेते हैं. जो बुद्ध होने के लिए आता है, वह पैदा हमारे और आपके जैसे होता है, लेकिन वह बुद्ध हो जाता है. इसी तरह से कोई गांधी होने के लिए आता है और वह गांधी हो जाता है. कबीर बनने के लिए आता है वह कबीर हो जाता है. कोई आइंस्टीन बनने के लिए आता है और आइंस्टीन बन जाता है. कोई बर्नाड शॉ बनने के लिए आता है और बर्नाड शॉ बन जाता है, लेकिन उसके बीच में एक तल है वह हम मनुष्यों का है. जो काफी हताशा, निराशा, तनाव, महात्वाकांक्षा, अकेलापन और कुछ पा लेने की जिद, कुछ खो देने का गम, चिंता. जिस तनाव में हम खड़े हैं, वह हमारा तल है. जिसके लिए हम, इधर भी जा सकते हैं और उधर भी जा सकते हैं.
उपेन्द्र राय ने एक कहानी का जिक्र करते हुए कहा- देर रात एक बूढ़ी औरत जोर-जोर से चिल्लाने लगी मुझे बचाओ…मेरे घर में आग लगी है. आवाज सुनकर मोहल्ले वाले लोग इकट्ठा हो गए. लोगों ने बूढ़ी औरत से पूछा कि अम्मा आग कहां लगी है? तब वह बूढ़ी औरत जोर से हंसने लगी और कहा कि आग तो तुम सबके अंदर लगी है लेकिन तुम्हें दिखाई नहीं दे रही है. लोगों ने कहा कि आप किस आग की बात कर रही हैं. बूढ़ी औरत ने कहा कि आपको सिर्फ एक आग के बारे में पता है जो विज्ञान की बाल्टी से तो बुझा सकते हैं पानी भरकर, लेकिन जो अंदर की आग की है उसके बारे में तुम्हें पता नहीं है.
इंटेलिजेंट इंसान नहीं बनाता हमारा एजुकेशन
सीएमडी उपेन्द्र राय ने कहा, जो हमारा एजुकेशन का सिस्टम है, इंटेलिजेंट या फिर एक चैतन्य आदमी का निर्माण नहीं करती है. हमें ज्यादातर यह सिखाया जाता है कि चीजों को याद रखें,लेकिन आइंस्टीन जैसा वैज्ञानिक अपना डेली रूटीन भूल जाता था. एक कहानी मैंने पढ़ी है कहीं, कि आइंस्टीन टैक्सी में बैठे और अपना घर ही भूल गए. जब ड्राइवर ने पूछा कि कहां जाना है तो उन्हें अपना अड्रेस याद नहीं था. उन्होंने कहा कि मुझे अल्बर्ट आइंस्टीन के घर पहुंचा. जो टैक्सी वाले पता था. मैं इसलिए ऐसा कह रहा हूं कि अगर कोई बहुत अच्छी मेमोरी वाला इंसान है तो उसे इंटेलिजेंट मत समझ लेना. जो बहुत जीनियस होता है, अक्सर उसकी मेमोरी बहुत कम होती है.
मेमोरी अच्छी होने का मतलब इंटेलिजेंट नहीं
हां इतना जरूर है कि आज के समय में अनुशासन को लेकर बच्चों को बताया जाता है कि जिसकी मेमोरी बहुत अच्छी है, वह इंटेलिजेंट है, लेकिन मैं ऐसा नहीं मानता, क्योंकि मेमोरी से इंटेलिजेंट का कोई भी संबंध नहीं है. दो अलग-अलग बातें हैं. जब भारत में साल 1975 में उन्नत बीज आने शुरू हुए तब पश्चिम ने कहा था कि आने वाले 40 से 50 साल में हम यह दुनिया में साबित कर देंगे कि जिस तरह से अनाज के बीज आते हैं उस तरह से IVF सेंटर पर बच्चे कैसे पैदा होंगे, उसमें ये 10 बीमारियां कभी नहीं होंगी. बच्चा 70 से 80 साल तक जियेगा ही. इसके साथ ही पैदा होने वाले बच्चे की तस्वीर भी पहले से बनी होगी कि यह बच्चा जब पैदा होगा तो इसी तरह का होगा. आज जीन थेरेपी से संभव भी हो चुका है,लेकिन भारत जैसे देश में सबसे बड़ी दुविधा ये है कि जो शिक्षा की पद्धति है, वह पीछे की तरफ ले जाती है.आज हम मंगल पर पहुंच रहे हैं, चंद्रमा पर बहुत पहले जा चुके हैं, लेकिन बारे में कुछ मुट्ठी भर लोगों को पता है. मिल्की वे के बारे में, गैलेक्सी के बारे में.
पूरे यूनिवर्स के बारे में जो जानकारी एक-एक बच्चे को पता होनी चाहिए, लेकिन फिर भी अगर 10 लोगों से पूछा जाए तो कुछ लोगों को बेसिक जानकारी भी नहीं है. हालांकि सोशल मीडिया ने बहुत कुछ दिया है. वह बेसिक ज्ञान क्यों नहीं है, क्योंकि जवाहर लाल नेहरू जब देश के पहले पीएम बने तो उन्होंने एक बड़ी बुनियादी भूल की. यूनियन पब्लिक सर्विस कमीशन बनाया, उसमें IAS, IFS, IPS, IRS जैसे पद तो दिए, लेकिन मेरा मानना है कि उनको इन सबके ऊपर एक सेवा देनी चाहिए थी इंडियन टीचर सर्विसेस (ITS). अगर आईटीएस वो दे पाए होते तो भारत अमेरिका से कहीं ज्यादा शक्तिशाली राष्ट्र होता.
अमेरिका किसी का देश नहीं है- उपेन्द्र राय
आज सभी लोग अमेरिका भाग कर पढ़ने क्यों जाते हैं, या फिर जितने भी सर्वश्रेष्ठ वैज्ञानिक हुए वो अमेरिका ही क्यों गए? इसकी एक वजह है- अमेरिका किसी का देश नहीं है, बल्कि अपना वतन और अपनी जमीन छोड़कर इक्ट्ठा हुए लोगों का देश है. इसलिए जब उनके अंदर एक गहरी बात है कि जब कोई ऐसा आदमी आता है तो उसे गले लगा लेता है.
उन्होंने कहा, मैं एक कार्यक्रम में गया था, वहां एक बड़े जज रहे मार्केंडेय काटजू को सुन रहा था. उन्होंने एक बहुत अच्छी बात कही कि उन्होंने कहा कि जब में सुप्रीम कोर्ट में जज हुआ तो मेरे सामने एक मुकदमा आया. जिसमें 300-400 लोगों को जासूसी के मामले में बंद किया गया था. जब मैंने देखा कि उन सभी लोगों की आयु 60 से लेकर 80 वर्ष थी. जब उन्होंने पता किया तो जांच अधिकारी ने बताया कि इन सभी लोगों का कहना है कि जब देश का बंटवारा हुआ था तो वे बिछड़ गए थे. इसलिए उस गम को भुलाने के लिए अपनी मिट्टी को देखने के लिए चले आए. मार्केंडेय काटजू ने कहा कि कई बार कुछ जजमेंट के रिफरेंस नहीं होते हैं. हमें जज बनाया जाता है आत्मा से निर्णय देने के लिए. उसी वक्त मैंने उन सभी को जासूसी के आरोपों से मुक्त करते हुए सम्मानपूर्वक उन्हें देश में घूमने के साथ ही अपने देश जाने की आजादी दी.
इसलिए मैं कहना यह चाहता हूं कि जो लोग अपनी मिट्टी अपने वतन को छोड़कर अमेरिका जाते हैं, चाहे हरगोविंद खुराना हों, काल मार्क्स हों, यह सब अमेरिका जाकर क्यों बस गए? इसी तरह से अमेरिकी लोगों ने अपना गम महसूस किया कि हम भी अपनी मिट्टी छोड़कर आए थे. कभी हम भी यहां पर कुछ ढूंढने आए थे, कुछ पाने आए थे, ठीक उसी तरह से पाकिस्तान के लोग अपने घर-मिट्टी और दरों-दीवार को देखने आए थे. इसलिए अमेरिका का जो ज्ञान और मनोविज्ञान है, शायद उसी वजह से आज वह 30 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बन गया.
युवा होने का मतलब क्या है?
हम तीन से 5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था के बीच संघर्ष कर रहे हैं. जबकि 70 फीसदी आबादी हमारी युवा है, लेकिन युवा होने के बावजूद हमने पाया क्या? युवा होने का मतलब शरीर से युवा होना नहीं होता है, बल्कि विचारों से युवा होना होता है. युवा होने का मतलब हमारी एक वैज्ञानिक और प्रमाणिक सोच का होना. वैज्ञानिक सोच न होने के पीछे सबसे बड़ी बाधा क्या है? हमारे आप जैसे लोग या फिर इस सभा में बैठे बच्चे इस बात पर असहज भरोसा कर लेते हैं कि अगर कोई सांप काट ले तो कोई झाड़-फूंक करने वाला बाबा ठीक कर देगा, लेकिन आपको बता दें कि अगर कोई जहरीला सांप काट लेता है तो कोई भी झाड़-फूंक करने वाला बाबा आज तक ठीक नहीं कर पाया है. हमकों यह नहीं पता है कि सांपों की जितनी प्रजातियां हैं, उनमें 95 फीसदी जहरीली नहीं होती हैं. हालांकि उन 95 प्रतिशत के काटने से, डर के कारण लोग मर जाते हैं. झाड़-फूंक वाले बाबा उन्हें ही ठीक करते हैं, जिन्हें इन 95 फीसदी प्रजातियों में से किसी एक ने काटा हो, लेकिन उन पांच फीसदी सांपों के काटने से कोई नहीं बचता है. कहने का मतलब ये है कि आज भी हमारे अंदर वैज्ञानिक सोच का अभाव है. ज्ञान का अभाव है, इसलिए हम झाड़-फूंक पर भरोसा करते हैं. इतना ही नहीं, आने वाली पीढ़ी को भी यह ट्रांसफर कर देते हैं.
उन्होंने कहा, जो हमारे शिक्षाविद थे, जब अंग्रेजों का शासन था, तो यूनियन जैक को सलाम करना सिखा रहे थे, शिवाजी के बारे में, मुगलों और अंग्रेजों के प्रभाव में यहीं के लोगों ने भद्दी टिप्पणियां की, लेकिन जब देश आजाद हुआ तो उन्हीं लोगों ने सुर बदल लिया. इसलिए कहने का मतलब था कि युवा होने का मतलब, अध्यापक होने का मतलब, एक पूरी की पूरी युवा पीढ़ी को सशक्त बनाना होता है.
हम एक बात को और देखते हैं कि अगर बच्चों ने जो कहा जाए वो मान लेते हैं तो उसे अनुशासन माना जाता है, इस धारणा ने भी बच्चों का बड़ा नुकसान किया है. हमने वह प्रेमपूर्ण शिक्षा नहीं दी जिससे बच्चों के अंदर वो गौरव गरिमा और Responsibility आ सके. हमने हमेशा बच्चों को दबाया, और जब हम बच्चों को दबाएंगे वहां पर विस्फोट होगा. जहां उसे गरिमा नहीं देंगे, वहां पर वह दूसरे तरीके से अपनी गरिमा को पाना चाहेगा…
विचारों की ताकत है Consolidated Responsibility
…तो जब राष्ट्र की बात होती है एक Consolidated Responsibility हम सबकी बनती है. और यह कोई पानी की बाल्टी को एक जगह से दूसरी जगह उठाकर रखना नहीं होता है. सबसे बड़ी Consolidated Responsibility है वो है विचारों की ताकत. विचारों से नया होना, विचारों से वैज्ञानिक होना. इसलिए कहने का मतलब है कि हम जो कहते हैं वह बिल्कुल भी नहीं करते हैं. इतनी ईमानदारी क्यों नहीं बची है, क्योंकि हमें सिर्फ भरोसा करना सिखाया गया है. अगर हमें सिखाया गया होता कि जानों तब मानो, हमें यह सिखाया गया है कि हम कह रहे हैं इसलिए मान लो. जब तक ऐसी शिक्षा पद्धति रहेगी और अनुशासित बच्चों को हम देखना चाहेंगे, ज्यादा अनुशासन जो होता है वह आदमी को मुर्दा बना देता है. इसलिए हमारी जो शिक्षा की पद्धति है, उसे मैं मानता हूं कि उसमें पूरी तरह से आमूल-चूल परिवर्तन की जरूरत है. एक नई शिक्षा पद्धति का इस दुनिया में आना बहुत जरूरी है. जिससे एक मनुष्य के जन्म की दिशा तय हो सके.
पूरब और पश्चिम में बड़ा Contradiction है
पूरब और पश्चिम में बड़ा Contradiction है, पश्चिम को जब आध्यात्म सीखना होता है तो वह पूरब की ओर आता है, लेकिन जो पूरब आध्यात्म और विज्ञान से लबरेज था, उसका विज्ञान पश्चिम की तरफ कैसे ट्रांसफर हो गया. हम कैसे अवैज्ञानिक हो गए? सिर्फ एक कारण से. क्योंकि हमने जानना बंद कर दिया, खोजना बंद कर दिया, यात्राओं पर जाना बंद कर दिया. हम अपने घरों में बैठ गए. हमें बुद्ध और महावीर के विचारों की प्रमाणिक और खोज पता होनी चाहिए. आझ उनकी डेड बॉडी का कोई मोल नहीं है. आज अनखोजी हुई पांडुलिपि हमें मिल जाए, उसका मोल है. बस इतना ही अंतर है वैज्ञानिक और अवैज्ञानिक खोज में.
हम शरीर को ज्यादा कीमती मानते हैं, जो साढ़े तीन हजार साल पहले गुजर गया, लेकिन साढ़े तीन हजार साल पहले वह क्या देकर गए थे, जो आज हमारे काम का हो सकता है, बस वही हमारे अंदर से गायब है, जो चेतना है. इसलिए इंसान चेतना से भरे और जो अनुशासन के नाम पर हजारों साल से शिक्षा दी जा रही है, उसकी जगह प्रेमपूर्ण शिक्षा दी जाए, उसके अंदर जो संभावना है, अगर वह कारपेंटर बनना चाहता है तो उसे यह फील कराया जाए कि कारपेंटर का काम भी बहुत सम्मान का काम है, लेकिन हमारे यहां लोगों को इतनी हेय दृष्टि से देखा जाता है कि जो ऐसा प्रोफेशन चुन लेते हैं, जिसमें इतना सम्मान नहीं है तो वह काम तो करता है लेकिन वह मरे हुए आदमी की तरह करता है.
CSIR को फिर से मिले शांति स्वरूप भटनागर पुरस्कार देने का जिम्मा
आपने देखा होगा कि शेर जब शिकार करता है तो वह कितना भी घायल हो जाता है, लेकिन अपना रास्ता कभी नहीं बदलता है. कहते हैं कि लीक-लीक गाड़ी चले, लीक ही चले कपूत, लीक छोड़ तीन ही चलें शायर, सिंह, सपूत. अभी डायरेक्टर साहब के साथ बैठा था तो बात हो रही थी कि शांति स्वरूप भटनागर पुरस्कार पहले सीएसआईआर देता था, लेकिन बाद में उससे लेकर किसी और को दिया गया. मेरे एक डॉक्टर मित्र हैं, न्यूरो मेडिसिन सर्जन. उन्हें साल 2004 में वाजपेयी सरकार में शांति स्वरूप भटनागर पुरस्कार मिला था. इसलिए मैंने सोचा है कि इसके लिए प्रधानमंत्री जी को एक पत्र जरूर लिखूंगा कि दोबारा से इस पुरस्कार को देने का जिम्मा सीएसआईआर को सौंप दिया जाए.
-भारत एक्सप्रेस
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