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परदेस में कितने देसी नेता 

भारतीय मूल के विदेशी नेता

क्या आप जानते हैं कि इंग्लैंड के अलावा भी कई देशों में भारतीय मूल के प्रधान मंत्री हैं? दीपावली के दिन जैसे ही ये खबर आई कि ऋषि सनुक निर्विरोध ब्रिटेन के प्रधान मंत्री चुन लिए गये हैं, तो विश्व भर के हिंदुओं में ख़ुशी की लहर दौड़ पड़ी, विशेषकर भारत में. लोग बल्लियों को उछालने लगे मानो भारत ने इंग्लैंड को जीत लिया हो. औपनिवेशिक मानसिकता से ग्रस्त रहे भारतीयों के लिए निश्चय ही ये एक गर्व का विषय है कि ऋषि सनुक उन गोरों के प्रधान मंत्री हैं जो कभी भारतीयों को शासन करने में नाकारा बताते थे. यह भी सही है की ऋषि सनुक के पूर्वजों की जड़ें पूर्वी पाकिस्तान और भारत से जुड़ी हैं और वे इंफ़ोसिस के संस्थापक नारायणमूर्ति के दामाद हैं. इससे भी ज़्यादा यह कि वे स्वयं को हिंदू घोषित कर चुके हैं और उन्होंने अपनी सांसदीय शपथ भी भगवद् गीता पर हाथ रख कर ली थी. इससे आगे ऐसा कुछ नहीं है जिसके लिये भारत के कुछ लोग इतने उत्साहित हैं.

ऋषि सनुक को ये संस्कार श्रील ए॰सी॰ भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद द्वारा स्थापित इस्कॉन ने दिए हैं, जो मानता है कि हम हिंदू नहीं, हमारी पहचान सनातन धर्मी के रूप में है. जबकि कुछ संगठन सभी सनातन शास्त्रों व मान्यताओं के विपरीत चलते हुए अपना ही बनाया ‘हिंदुत्व’ सब पर थोपते हैं. लंदन के इस्कॉन मन्दिर में ऋषि सनुक ने सपरिवार जा कर गौ माता का पूजन किया तो कुछ लोग इसे इंग्लैंड में भारतीय संस्कृति के प्रसार की संभावना मान कर अति उत्साहित हो गये. पर अगले ही दिन ऋषि सौनक ने ट्विटर पर लिखा कि ‘मेरा संसदीय क्षेत्र गाय और बकरों के मांस का व्यापार करने वालों का है. ये एक बढ़िया उद्योग है. कोई क्या खाए, ये उसकी पसंद से तय होता है. इसलिए मैं इस उद्योग को पूरा बढ़ावा दूँगा- देश में भी और विदेश में भी’.

इसके बाद ही ऋषि सनुक के श्वसुर नारायणमूर्ति और सास सुधा नारायण मूर्ति के काफ़ी निकट के मित्र, प्रधान मंत्री मोदी जी व आरएसएस के नेताओं के भी ख़ास सहयोगी व सलाहकार, बेंगलुरु के मशहूर उद्योगपति मोहन दास पाई ने ट्वीटर पर लिखा कि “ऋषि सनुक इंग्लैंड के नागरिक हैं और उनका समर्पण इंग्लैंड के प्रति है. वे यूके के हित के सामने भारत के लिए कुछ भी नहीं करने जा रहे. भारत उनसे कोई आशा न रखे.” उन्होंने ये भी लिखा कि “ऋषि सौनक का भारत के प्रति कड़ा तेवर रहने वाला है इसके लिए हमें तैयार रहना चाहिये.”

पिछले हफ़्ते सोशल मीडिया पर छाये रहे इस पूरे प्रकरण से कुछ बातें समझनी चाहिए. पहली बात तो यह है कि भारतीय मूल के जो युवा विदेशों में पैदा हुए और पले बढ़े और वहीं के नागरिक हैं, उनका भारत के प्रति न तो वह भाव है और न ही वह आकर्षण, जो उनके माता-पिता या पूर्वजों का रहा है, जो भारत में जन्में थे और बाद में विदेशों में जा बसे.

ऋषि सनुक भारतीय उपमहाद्वीप मूल के पहले युवा नहीं हैं जो इस ऊँचाई तक पहुँचे हैं. अमरीका की उपराष्ट्रपति कमला हैरिस की ननिहाल तमिल नाडू में है. उन्हें दक्षिण भारतीय खाना पसंद है और वे अपने मौसी-मामाओं से जुड़ी रहती हैं. पर भारत के प्रति कमला हैरिस का रवैया वही है जो आम अमरीकी का है. मसलन वे कश्मीर को मानवाधिकार का विषय मानती हैं. जो भारतीय दृष्टिकोण के विरुद्ध है.

हम में से कितने लोग यह जानते हैं कि 2017-2020 तक आयरलैंड के प्रधान मंत्री रहे लिओ वराडकर के माता-पिता मुंबई के पास वसई के रहने वाले हैं. लिओ ने 2003 में मुंबई के केईएम अस्पताल से इण्टर्नशिप पूरी की थी. उनकी माँ आयरिश हैं और पिता भारतीय. लिओ वराडकर की इस प्रभावशाली सफलता का भारत में कोई ज़िक्र क्यों नहीं करता? क्या इसलिए कि वे ईसाई हैं? ये बहुत ओछि  मानसिकता का परिचायक है.

इसी तरह पुर्तगाल के मौजूदा प्रधान मंत्री एंटोनियो कोस्टा भी भारतीय मूल के हैं. उनके माता-पिता का जन्म गोवा में हुआ था. ये दूसरी बार प्रधान मंत्री चुने गये हैं. विडंबना देखिए कि न तो भारत के मीडिया को इसकी खबर है और ना ही देश की जनता को. तो फिर भारत माँ के इन सपूतों की इस उपलब्धि पर जश्न कौन मनाएगा ? जबकि एंटोनियो कोस्टा तो आज भी ओसीआई कार्ड के धारक हैं और लिओ वराडकर अक्सर अपने रिश्तेदारों से मिलने महाराष्ट्र के ठाणे ज़िले में आते रहते हैं. पर इसकी मीडिया में कहीं कोई चर्चा क्यों नहीं होती ? ये प्रमाण हैं इस बात का कि देश का मीडिया कितना संकुचित और कुंद हो गया है. ये रवैया भारत की अंतरराष्ट्रीय छवि और लोकतंत्र के लिए घातक है.

पिछले कुछ वर्षों से हिंदुत्व को लेकर जो अभियान चलाया जा रहा है उसे लेकर देश के करोड़ों सनातन धर्मियों के मन में अनेक प्रश्न खड़े हो रहे हैं, जिनका संतुष्टि पूर्ण उत्तर संघ परिवार के सर्वोच्च पदाधिकारियों को देना चाहिए. एक तरफ़ तो सरसंघचालक डॉ मोहन भागवत जी ऐसे वक्तव्य देते हैं जिससे लगता है कि संघ अपने कट्टरपंथी चोले से बाहर आ रहा है। जैसे “मुसलमानों और हिंदुओं का डीएनए एक है.” “अब मस्जिदों में और शिव लिंग खोजना बंद करें.” दूसरी तरफ़ संघ प्रेरित सोशल मीडिया का दिन-रात हमला मुसलमानों के विरुद्ध भावनाएँ भड़काने के लिए होता रहता है। ये विरोधाभास क्यों?

एक तरफ़ तो संघ परिवार हिंदुत्व की जमकर पैरवी करता है और दूसरी तरफ़ सनातन धर्म की परंपराओं, वैदिक शास्त्रों और शंकराचार्य जैसी प्रतिष्ठित संस्थाओं के विरुद्ध आचरण भी करता है. ये विरोधाभास क्यों ? ऐसे में हमारे जैसा एक आस्थावान सनातन धर्मी किस मार्ग का अनुसरण करे? ये भ्रम जितनी जल्दी दूर हो उतना ही हमारे समाज और राष्ट्र के हित में होगा. वरना हम इसी तरह ऋषि सनुक की उपलब्धि पर तो बल्लियों उछलेंगे और एंटोनियो कोस्टा व लिओ वराडकर की उपलब्धियों से मूर्खों की तरह बेख़बर बने रहेंगे. भागवत जी के वक्तव्य को यदि गंभीरता से लिया जाए तो ये खाई अब पटनी चाहिए.

 

-भारत एक्सप्रेस

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