Bharat Express

उत्तर प्रदेश: भाजपा क्यों हारी-सपा क्यों जीती? जानिए लोकसभा चुनाव में कैसे बदला यूपी की सियासत का रंग

ऐसा माना जाता है कि दिल्ली की गद्दी का रास्ता लखनऊ से होकर जाता है। इस बार के चुनावों में उत्तर प्रदेश का जो परिणाम रहा उसने सत्तारूढ़ दल को यह सोचने पर मजबूर कर दिया है कि ऐसी कौनसी कमी उनकी नीति मे थी जो वोटरों को अपनी ओर आकर्षित करने में विफल रही?

ghosi bypolls

सीएम योगी आदित्यनाथ व अखिलेश यादव

‘अचानक कहीं कुछ नहीं होता, अंदर ही अंदर कुछ घिस रहा होता है, कुछ पिस रहा होता है।’ इन पंक्तियों में कवि ने इस बात पर इशारा किया है कि किसी भी काम का विपरीत अंजाम आने पर हमें ऐसा क्यों लगता है कि ऐसा कैसे हो गया? जबकि उसके पीछे के कारणों पर कोई ध्यान नहीं देता। ऐसा ही कुछ हुआ 2024 के उत्तर प्रदेश में लोकसभा चुनावों के परिणामों के बाद। यहां बीजेपी को पहले के मुकाबले इस बार बहुत कम सीटें मिलीं। ऐसा क्या कारण था कि भाजपा का प्रदर्शन इतना बुरा रहा? अयोध्या में भव्य राम मंदिर का निर्माण। अनुच्छेद 370 का हटाना। तीन तलाक़ को ख़त्म करना। ये ऐसे कुछ मुद्दे थे जिन पर भाजपा को पूरा विश्वास था कि वह ‘अबकी बार 400 पार’ के अपने नारे को सच कर दिखाएँगे। परंतु ऐसा न हो सका।

लखनऊ से होकर दिल्ली की गद्दी का रास्ता…

ऐसा माना जाता है कि दिल्ली की गद्दी का रास्ता लखनऊ से होकर जाता है। इस बार के चुनावों में उत्तर प्रदेश का जो परिणाम रहा उसने सत्तारूढ़ दल को यह सोचने पर मजबूर कर दिया है कि ऐसी कौनसी कमी उनकी नीति मे थी जो वोटरों को अपनी ओर आकर्षित करने में विफल रही? ऐसा क्या हुआ कि पार्टी के कार्यकर्ताओं में वो उत्साह नहीं था जो पिछले दो लोकसभा चुनावों में देखा गया? क्या संगठन के काम करने के ढंग या उनके द्वारा लिये गये ग़लत फ़ैसलों ने ज़मीनी कार्यकर्ताओं को हतोत्साहित किया? क्या उत्तर प्रदेश में या अन्य राज्यों में, जहां भाजपा का प्रदर्शन संतोषजनक नहीं था वहां पर उम्मीदवारों के चयन में गलती हुई? हिंदुओं के लिए पूजनीय अयोध्या, रामेश्वरम में मिली हार और प्रधान मंत्री को काशी में पिछली बार के मुक़ाबले बहुत कम अंतर से मिली जीत भी सवालों के घेरे में है। इन नतीजों के बाद सरसंघचालक डॉ मोहन भागवत द्वारा ‘अहंकार’ की ओर इशारा करना भी क्या इस बुरे प्रदर्शन का कारण बना?

भाजपा की ये कमी बनी हार का कारण

सूत्रों के अनुसार इस बार के चुनावों कम सीट आने के पीछे भाजपा में अंदरूनी कलह ने भी एक बड़ी भूमिका निभाई। जिस तरह केंद्र के नेतृत्व द्वारा राज्य की सरकारों व राज्यों के नेताओं की उपेक्षा की गई और वो फिर जनता के सामने आई वह भी इन नतीजों का कारण बनी। भाजपा और संघ के बीच हुए मतभेदों को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता। यदि केंद्र और राज्य के नेतृत्व में कोई मतभेद थे तो उन्हें समय रहते एक मर्यादा के तहत हल किया जाना चाहिए था।भाजपा और संघ के कार्यकर्ताओं का इस बार के चुनावों में सक्रिय योगदान नहीं दिखाई दिया उससे देश भर में एक संदेश गया है कि राष्ट्रीय नेतृत्व ज़मीन से कट गया है। इस बार के चुनावों को इतने चरणों में बांटने से भी कार्यकर्ताओं की सहभागिता में कमी नज़र आई। कार्यकर्ताओं को इस बात का पूर्ण विश्वास था कि पिछले दस वर्षों में देश में ऐसे कई बदलाव आए हैं जो तीसरी बार भी मोदी सरकार को पूर्ण बहुमत दिलाएँगे। शायद इसी के चलते भी कार्यकर्ताओं में उतना उत्साह दिखाई नहीं दिया।

सपा के उभार की वजह

वहीं दूसरी ओर देखें तो समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव और उनके कार्यकर्ताओं ने जिस तरह उत्तर प्रदेश के चप्पे-चप्पे पर अपनी नज़र बनाए रखी और खूब भागदौड़ की वो काफ़ी फ़ायदेमंद रहा। सपा के उम्मीदवारों का चयन और ‘इंडिया’ गठबंधन के घटक दलों का उन पर विश्वास, दोनों ही इन चुनावों में सही साबित हुए। चुनाव के दौरान और चुनाव संपन्न होने के बाद जिस तरह अखिलेश यादव की सेना ने चौकन्ना रह कर स्थानीय प्रशासन और चुनाव आयोग परदबाव बनाए रखा वो फ़ायदेमंद साबित हुआ। यदि समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ता इसी ऊर्जा और रणनीति से अभी से जुटे रहेंगे तो 2027 के विधान सभा चुनावों में भी उनका प्रदर्शन बढ़िया रहेगा। उत्तर प्रदेश के अगले विधान सभा चुनावों में यदि सही रणनीति और सही उम्मीदवारों का चयन हो, यदि वहां की जनता की समस्याओं के समाधान की एक ठोस योजना हो तो उन मतों को भी अपने पाले में लाया जा सकता है जो बुनियादी मुद्दों से भटका दिये गये हैं।

सपा VS भाजपा

इतना ही नहीं, जिस तरह समाजवादी पार्टी को एक विशेष वर्ग के लोगों की पार्टी माना जाता था, उसका भी भ्रम इस बार के चुनावों में टूटा है। सभी हिंदू तीर्थ स्थलों में सपा ने भाजपा को शिकस्त दी है। समाजवादी पार्टी ने जिस तरह ‘एम-वाई’ फैक्टर को नये रूप में पेश किया वह भी काम कर गया है। इस बार के चुनावों ‘एम-वाई’ फैक्टर को ‘महिला’ एवं ‘युवा’ के रूप में देखा गया। यदि इसी तरह की रणनीति के तहत अखिलेश यादव की पार्टी 2027 के विधान सभा चुनावों की योजना बनाए तो उनको अगली विधान सभा में 300 का आँकड़ा पार करना मुश्किल न होगा। ऐसा करने के लिए उन्हें ‘इंडिया’ गठबंधन के दलों को भी अपने साथ लेकर चलना होगा। जिस तरह भाजपा हर समय चुनावी मूड में रहती है यदि विपक्षी पार्टियाँ भी उसी मूड में रहें तो भाजपा को कड़ी टक्कर दे पायेंगी।

इसे भी पढ़ें: वायरल वीडियो: केवल एक पक्ष न देखें

इसके साथ ही सत्तापक्ष और विपक्ष दोनों को ही इस बात पर भी तैयार रहना चाहिए कि यदि किसी दल को पूर्ण बहुमत नहीं मिलता है तो गठबंधन की सरकार ही विकल्प होता है। यदि कोई भी दल इस अहंकार में रहे कि वो एक बड़ा और प्रभावशाली राजनैतिक दल है और विपक्ष दर्शक दीर्घा में बैठने के लिए है तो फिर उसे तब झटका लगेगा ही जब उसे सरकार बनाने के लिए अन्य दलों के आगे झुकना पड़ेगा। हर दल को जनता के फ़ैसले का सम्मान करना चाहिए और अपनी हार स्वीकार लेनी चाहिए। गठबंधन की सरकार में हर वो दल जिसके पास अच्छी संख्या हो वह किसी न किसी बात पर उखड़ भी सकता है। इसलिए भलाई इसी में है कि अपनी ग़लतियों से सबक़ लिया जाए और सबका साथ और सबका विकास अमल में लाया जाए।

*लेखक दिल्ली स्थित कालचक्र समाचार ब्यूरो के प्रबंध संपादक हैं।

Also Read