प्रतीकात्मक तस्वीर
Parliamentary Election 2024: मार्च का महीना अपने आखिरी पड़ाव की तरफ धीरे – धीरे बढ़ रहा है साथ ही तापमान भी बढ़ रहा है. ठंडक ने अभी अलविदा कहा ही था तबतक देश में आदर्श आचार संहिता ने लागू होने के साथ देश का सियासी तापमान बढ़ा दिया. देश में चुनाव हो और उत्तर प्रदेश की चर्चा ना हो भला यह कैसे सम्भव है, क्योंकि उत्तर प्रदेश सबसे अधिक जनप्रतिनिधि निर्वाचित होकर देश की संसद में जाते हैं. वहीं यह भी कहा जाता है कि यूपी से होकर ही दिल्ली का रास्ता जाता है.
यूं तो हर एक व्यक्ति एवं क्षेत्र की अपनी एक अलग पहचान होती है, लेकिन व्यक्ति या क्षेत्र में कुछ विशेष होता है तो चर्चा सबकी जुबान पर होती है. यह वह जगह है जहां हुनरमंद लकड़ियों में जान फूंक देते हैं. फर्नीचर हो या नक्काशी, यहां की काष्ठ कला बेहद खास है. यहां के बासमती चावल की खुशबू खाने का स्वाद बदल देती हैं. देश की राजधानी दिल्ली से तकरीबन 180 किलोमीटर दूर सहारनपुर माँ शाकम्भरी देवी के धाम और लकड़ियों के काम और बासमती के चावल के लिए तो जाना ही जाता है, लेकिन सहारनपुर से सियासत का भी एक विशेष जुड़ाव है.
दरअसल, सहारनपुर लोकसभा क्षेत्र का नम्बर एक है यानी उत्तर प्रदेश के लोकसभा क्षेत्रों की जब बात होती है तो सबसे पहले जिक्र सहारनपुर लोकसभा क्षेत्र का आता है.
सियासी इतिहास
सहारनपुर लोकसभा क्षेत्र के सियासी इतिहास की बात की जाए तो यहां सबसे अधिक छह बार कांग्रेस के सांसद निर्वाचित हुए हैं. 1983 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के हत्या के 1984 में हुए लोकसभा चुनाव में आखिरी बार कांग्रेस ने सहारनपुर से चुनावी जीत दर्ज किया था.
सहारनपुर संसदीय क्षेत्र में अबतक तीन बार कमल खिल चुका है, 3 बार हाथी चल चुकी है, जबकि यहां साईकिल बस एक बार ही कामयाबी दर्ज कर पाई है. साल 1996,1998 और 2014 में यहां कमल खिला तो वहीं 1999, 2009 और 2019 में तीन बार बसपा इस सीट पर काबिज हुई. इनके बीच महज एक बार 2004 में साईकिल भी रेस जीतने कामयाब रही.
जातिगत समीकरण
यूपी में सियासत चेहरा तो मुद्दे का रखती है, लेकिन उसका दिल जातीय गणित में ही धड़कता है. यही वजह है कि सहारनपुर को मुस्लिम-दलित सियासत का केंद्र माना जाता है. इस्लामिक शिक्षा का सबसे अहम केंद्र देवबंद भी सहारनपुर लोकसभा क्षेत्र के अन्तर्गत है, जो अक्सर चर्चा का केन्द्र बना रहता है. सहारनपुर लोकसभा क्षेत्र में तकरीबन 18 लाख मतदाता हैं, जिनमें 6 लाख 40 हजार आबादी मुस्लिम वर्ग की है. वहीं तकरीबन 4 लाख 70 हजार दलित, 1 लाख 35 हजार ब्राह्मण, 1 लाख 30 हजार त्यागी, 1 लाख 20 हजार क्षत्रिय तथा तकरीबन 2 लाख 30 हजार ओबीसी वर्ग के मतदाता है. पिछड़ी जातियों में जाट, गुर्जर, सैनी आदि भी प्रभावी असर रखते हैं.
आधी आबादी की कभी नही रही है दावेदारी
महिलाओं को लेकर सभी राजनीतिक दल बातें तो खूब करते हैं, लेकिन जब उन्हें पुरुषों के बराबर उनके हक और अधिकार दिए जाने का सवाल आता है तो महिलाओं को पीछे छोड़ दिया जाता है. शायद यही कारण है कि सहारनपुर लोकसभा क्षेत्र से आजादी के बाद से अबतक न कोई महिला सांसद बन सकी है और न ही दावेदार रहीं हैं.
मुस्लिम-दलित सियासत का केंद्र
सहारनपुर लोकसभा क्षेत्र में मुस्लिम और दलित मतदाता सियासत का केन्द्र हैं हालांकि, यहां का सियासी इतिहास बड़ा दिलचस्प है. बसपा के संस्थापक कांशीराम 1998 के लोकसभा चुनाव में यहां से न केवल भाजपा के प्रत्याशी से हार गए थे, बल्कि तीसरे नंबर पर चले गए थे. दूसरे नंबर पर कांग्रेस के रशीद मसूद थे, जिनका यहां की सियासत में लगभग चार दशक तक प्रभावी दखल रहा है. रशीद मसूद चार बार जनता दल व एक बार सपा से इसी सीट से संसद पहुंचे. हारने पर भी चार बार राज्यसभा के जरिए उच्च सदन के सदस्य बने. हालांकि, 2013 में मेडिकल एडमिशन घोटाले में चार साल की सजा होने के बाद उनकी सदस्यता चली गई थी और दोषसिद्धि में सदस्यता गंवाने वाले वह पहले सांसद बने.
दंगों से बदला था सियासी मिजाज
साल 2013 के मुजफ्फरनगर दंगों ने वेस्ट यूपी के सामाजिक समीकरण व माहौल को बदल दिया था और सहारनपुर की सियासी तासीर भी इससे अछूती नहीं रही. चुनाव के बीच कांग्रेस नेता इमरान मसूद का भाजपा के पीएम चेहरे नरेंद्र मोदी पर दिया गया ‘बोटी-बोटी’ बयान टर्निंग पॉइंट साबित हुआ था. वेस्ट यूपी की बाकी सीटों पर कांग्रेस जहां संघर्ष कर रही थी, मसूद के बयान ने लड़ाई को भाजपा व कांग्रेस के बीच समेटकर रख दिया. जातीय गणित भावनाओं की रसायन में पिघल गई और भाजपा ने यहां फिर डेढ़ दशक बाद कमल खिला लिया. हालांकि, 2019 के लोकसभा चुनाव में सपा-बसपा के गठबंधन ने विपक्ष के वोटों के बिखराव को कम किया और नजदीकी मुकाबले में 22 हजार वोटों से सीट बसपा के खाते में गई. लेकिन, सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की हवा यहां अब भी सियासत को गर्म-सर्द कर रही है.
24 का रण
लोकसभा चुनाव की आहट साफ सुनाई देने लगी हैं तो सियासी दल यहां भी मोहरे व रणनीति तय करने में जुट गए हैं. इस लोकसभा क्षेत्र में आने वाली पांच विधानसभा सीटों में तीन सहारनपुर नगर, देवबंद व रामपुर मनिहारन भाजपा और बेहट व सहारनपुर देहात सपा के पास हैं. सपा से दोनों विधायक मुस्लिम हैं. विपक्षी खेमा देखें तो सपा-कांग्रेस गठबंधन बन चुका है और सहारनपुर लोकसभा की सीट कांग्रेस के खाते में आई है.
यहां से इमरान मसूद कांग्रेस के सबसे प्रबल दावेदारों माने जा रहे हैं. हालांकि, 2012 में विधायक बनने के बाद से इमरान अब तक जीत का इंतजार कर रहे हैं. अल्पसंख्यक खेमे में इमरान मसूद की अपनी लोकप्रियता है जिसका उदाहरण 2019 के लोकसभा चुनाव में भी देखने को मिला था, जब सपा-बसपा गठबंधन के बावजूद इमरान ने 2.07 लाख वोट कांग्रेस के टिकट पर हासिल कर लिया था.
बसपा ने मौजूदा सांसद फजलुर्रहमान का टिकट काटकर माजिद अली को प्रभारी बनाया है. माजिद अली की पत्नी तसनीम बानो सहारनपुर जिला पंचायत अध्यक्ष रह चुकी हैं. बसपा का फोकस कोर दलित वोटों के साथ मुस्लिम वोटों पर है और बसपा प्रत्याशी की जमीनी पकड़ पर बसपा की उम्मीदें टिकी हैं. 2014 के चुनाव में 2.35 लाख वोट व पिछली बार मिली जीत बताती है कि बसपा सहारनपुर लोकसभा क्षेत्र के रणभूमि में एक मजबूत दावेदार है. भाजपा ने पिछली बार तत्कालीन सांसद राघव लखनपाल को उम्मीदवार बनाया था लेकिन उनको गठबंधन के सामने हार का सामना करना पड़ा था.
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वर्तमान समय में राममय माहौल, मोदी के काम व रालोद के साथ के बाद सहारनपुर के एनडीए गठबंधन के प्रत्याशी को मजबूती मिलने की उम्मीद जताई जा रही है और अगर विपक्ष में अल्पसंख्यक मतों में बिखराव हुआ तो उसकी राह आसान हो जाएगी. हालांकि, सहारनपुर लोकसभा क्षेत्र में त्रिकोणीय मामला भी देखने को मिल सकता है.