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दे दी जान हमने मुल्क की हिफ़ाज़त में… लाल सलाम के नाम पर आतंक का खेल आखिर कब तक?

ज़रूरत है समाज में बैठे उन चेहरों को पहचाने की. ज़रूरत है उनके मंसूबों को मटियामेट करने में सरकार के साथ खड़े होने की. अगर ऐसा नहीं होता है तो नक्सलवाद के नाम पर आज जवानों को निशाना बनाया गया है कल समाज के बेकसूर भी उनके निशाने पर आ सकते हैं.

(फाइल फोटो: X/@ChinarcorpsIA)

अरसा हो गया हाकिम बदले गए… हुक्मरान बदल गए… दरबान बदल गए… फरमाम बदल गए लेकिन नहीं बदला तो लाल सलाम के नाम पर नफरत का खेल. देश के सपूतों के खून से जमीं को लाल करने की कायराना साजिश. एक बार फिर बीजापुर की जमीं मुल्क के गद्दारों के नापाक हरकतों का गवाह बनी.

गवाह उस गुनाह की, जिसमें एक नहीं दो नहीं बल्कि दर्जनों जवानों को निशाना बनाया गया. एक धमाका… धुएं का गुबार और 9 जवानों की शहादत… और एक बार फिर नफरत के सौदागरों के खिलाफ सियासी बयान. किसी ने नक्सलवाद के खात्मे की जिम्मेदारी ली तो किसी ने सियासी तरकश से तीर निकालकर सरकार को घेरने की कोशिश की. पर सच उस शहादत की है, सच उन खून के छींटों की है, जिसके दाग शायद ही प्रदेश के किसी सियासतदां के दामन पर न लगे हों.

नक्सलियों के खिलाफ ऑपरेशन से लौट रहे जवान अब कभी लौट पाएंगे. उनके जनाजे ताबूतों में बंद हो जाएंगे, लेकिन जरा रुकिए ताबूतों में बंद ये सिर्फ जनाजे नहीं हैं, बल्कि ये आरजुएं हैं मुल्क की, ये धड़कनें हैं हिन्दुस्तान की… ये बाज़ुएं हैं बहादुरी की… ये आंसू हैं रोती हुई गंगा मां की…

तुम शहीद नहीं हुए

ताबूत में रखी है हिमालय की हिम्मत… रखा है हिन्दुस्तान का गुमान… उठो मेरे मुल्क के बहादुरों उठो… खोलो अपनी आंखें…के तुम शहीद नहीं हुए हो… देखो तुम धड़क रहे हो मुल्क की धड़कनों में… उठो के बुलाती है तुम्हें हवा… पुकारती है तुम्हें सरहद… एक डरी शाम बैठी है तुम्हारे इंतजार में… रोती है शाख पर बैठी अकेली बुलबुल… के अब कौन करेगा उसकी हिफाजत… गिरते आसमान के आंसू कहते हैं कि गलत है जमीं वालों तुम्हारे शहर की ये खबर… अफवाह है कि… नहीं रहे मुल्क के जाबांज़… किसने फैलाई है झूठी ख़बर… देखो वो ज़िन्दा है मेरे आसमान पर… वो कर रहे हैं वहां से हिफाज़त तुम्हारी ज़मी की… पर काश कि ऐसा होता..

इस बूढ़ी मां की आंखों में झांकने की कोशिश मत कीजिएगा. यहां टूट गया है आंसूओं का बांध. देखो कहीं बह ना जाएं ये आंखें. वहीं इस मां के टूटते सब्र के बीच कुछ हिम्मत अभी बाकी है, जिसने हाल ही में अपने बेटे के माथे पर तिलक लगाकर उसे मुल्क की हिफाजत की खातिर भेजा था. इस उम्मीद में कि मौत मुल्क की आवाम के साथ अपनी मनमानी न कर सके.

भारत मां के सपूत

मां की सिसकियों के बाद अब सुनिए उस तकलीफ को, जिसकी टीस देश के हर आवाम के सीने में उठ रही है. वो भारत मां के सपूत कहते हैं कि हम उठ गए थे अलसुबह. मुल्क की हिफाजत की खातिर. सब दुआ करके निकले थे, अपनी जिम्मेदारी के लिए. दिन धीरे धीरे घट रहा था और मौत मेरे कन्धे पर लटकी बंदूक की नाल पर सवारी कर रही थी. पूछो आसमान से, बताओ ऐ हवाओं के हम फर्ज अदायगी में मशगूल थे. कुछ देश में बैठे देश के दुश्मनों के खिलाफ कुछ कामयाबी हाथ लगी थी कुछ कामयाबी के सपने लेकर हम लौट रहे थे.

मंजिल अब कुछ ही दूर थी. सब खामोश थे लेकिन खामोशी के उस पार धमाके के शोर को शायद समझ नहीं पाए और पल भल पर हम अतीत हो गए. गुनहगारों की गोलियां हमारे सीने को भेदने निकलती तो हम डट कर सामना करते लेकिन ये तो साजिश थी शैतानियत की. जब तक हम कुछ समझ पाते हमारे 9 जवानों के लहू से जमी की छाती लाल हो गई.

अब जरा सुनिए हमारी मौत पर बिलखती रणभेरियों को, सुनिए हमारी मौत पर रोते जन गण मन को और इन सबके बीच ज़रा महसूस कीजिए उस बहन के दर्द को जिसकी राखी ताउम्र भाई के कलाई के इंतजार में बिना गांठ के रह जाएगी. उस सुहागन के दर्द को महसूस कीजिए जिसकी चूड़ियां टूट कर कलाई में धंस गई. अब सोनू को अपनी गोद में कौन सुलाएगा. पापा ने पिंकी के लिए तो पायल लाने का वायदा किया था न पर नियती देखिए मासूम बेटी से किया एक वायदा वो बाप निभा नहीं सका. अपनी देहरी पर गुमसुम बैठे जनाजे को निहारते उस बाप के आंखों में झांक कर देखिए दर्द भी अपने वजूद पर रोता दिखेगा.

सुनिए मुल्क के बादशाहों

लेकिन इनके दर्द से इतर जांबाज जवानों के मासूम बच्चों की कुछ तमन्नाएं हैं. उनकी रगों में दौड़ते लहू कहते हैं कि मैं भी पापा की तरफ देश की सेवा करूंगा और पिता के अधूरे फर्ज को पूरा करूंगा. सुनिए मुल्क के बादशाहों सुनिए. ये किसी सोनू मोनू पिंकी और पायल की फरियाद नहीं है, बल्कि ये दर्द है पूरे मुल्क का. इसे ही तो कहते हैं वतन से इश्क़. दर्ज कीजिए इस बयानों को हमारी खामोश धड़कनों पर लिखिए इन मासूमों के सौगंध को हमारे बदन से लिपटे सफेद कफन पर.

मुल्क के सारे वकील कलमबंद कीजिए इन अल्फाज को हमारे बेजान जिस्म पर फहरते तिरंगे की गवाही में… के वो लड़ना चाहते हैं… उसूलों से, वो लड़ना चाहते है… नफरतों से, वो लड़ना चाहते है… इस दौर के बुरे सिस्टम से, वो तोड़ना चाहते है… पुरानी रिवायतों को, कि कैसे देश के कथित वफादारों का कुनबा अपनी सहुलियतों के लिए मुल्क के पहरेदारों को एक साथ मौत के घाट उतार देता है.

कर दो नेस्तनाबूत…

हम बेजान तो हो चुके हैं… पर बेजार होने से पहले कुछ इल्तिजा है हमसे मोहब्बत करने वालों… पोछ लो अपने रुख्सार पर टपकते आंसूओं को… खामोश हो जा ऐ हवा ये पैगाम है हमारा.. हमारे देश के हाकिम से… हुकूमत से… कि लाल सलाम का फरमान सुनाकर आजादी मांगने वालों को कर दो नेस्तनाबूत… कर दो मुल्क में बैठे मुल्क के गद्दारों को खामोश… वरना वो दिन दूर नहीं कि फिर मेरा मुल्क एक बार गुलाम हो जाए, अपनी ही रियाया के हाथों.

लेकिन जरा रुकिए… लाल सलाम के नाम पर जवानों के जिस्म को छलनी करने की ये रिवायत आज की नहीं है बल्कि सच कहें तो सालों साल से इन कायरों का कुनबा घात लगाकर जवानों को निशाना बना रहा है और शर्म की बात तो ये है कि हमारी सरकार को उन्हें अपना कहने से भी गुरेज नहीं है. ज़रा याद कीजिए दंतेवाड़ा का वो नक्सली हमला. वो साल था 2010 जब सीआरपीएफ के जवानों के लहू से मुल्क का सीना लाल हो गया था और याद कीजिए उस वक्त के सरकारी बयान को… यकीनन उन्हें अपना कहने वाले सरकार पर शर्म आएगी, लेकिन सियासी बयानों के मायने भी क्या हैं… लेकिन अतीत के आंकड़ो के आईने में झांककर देखिए तो साल 2010 में जब देश में यूपीए की सरकार थी तब हजारों लोगों की जान नक्सलवाद की भेंट चढ़ी थी. जी हां कुल 1005 मौतें हुई थी. ये बात और है कि वक्त के साथ हुक्मरानों की संजीदगी ने इस आंकड़े कम किया है. 2010 के मुकाबले 2023 में हजारों की तादाद सैकड़ों में सिमट गई.

क्या कहते हैं सरकारी आंकड़े

सरकारी आंकड़े कहते हैं कि 2023 में मौत की संख्या 138 थी. सरकारी आंकड़े तस्दीक कर रहे हैं कि नक्सली घटनाओं में 73 फीसदी की कमी आई है. वहीं कुछ सरकारी दावे तो ये भी हैं कि 2013 तक देश में 10 राज्यों के 126 जिलों में नक्सलियों ने अपनी पैठ जमा रखी थी. वक्त के साथ सरकारी आंकड़े इसमें भी कमी बता रहे हैं. दावा है कि 126 जिले अब 38 में सिमट कर रह गए हैं, जिनमें 15 सिर्फ छत्तीसगढ़ में हैं.

केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने नक्सबाद के नासूर को 2026 तक खत्म करने के दावा किया था. सरकार के वो दावे असलियत की शक्ल में सामने आते दिख तो रहे हैं लेकिन ज़रा आहिस्ता आहिस्ता. सरकार भी मानती है कि नक्सलबाद वो नासूर है जिसकी जड़ें समाज में इस कदर फैली है जिसे नेस्तानाबूत करने की हमारी कोशिश मुश्किल जरूर है लेकिन नामुमकिन नहीं.

ज़रूरत है समाज में बैठे उन चेहरों को पहचाने की. ज़रूरत है उनके मंसूबों को मटियामेट करने में सरकार के साथ खड़े होने की. अगर ऐसा नहीं होता है तो नक्सलवाद के नाम पर आज जवानों को निशाना बनाया गया है कल समाज के बेकसूर भी उनके निशाने पर आ सकते हैं…वक्त आ गया है कि खामोशी खत्म करें और ऑपरेशन नक्सलबाद में सरकार के साथ कदम से कदम मिलाकर चलें तभी लाल सलाम का नारा बुलंद करने वालों को दिया जा सकता है करारा जवाब.

-भारत एक्सप्रेस



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