Alexander Pushkin.
डॉ. योगेश कुमार राय
रूस के महानतम साहित्यकारों की सबसे अग्रणी पंक्ति में शामिल अलेक्जेंडर पुश्किन (Alexander Pushkin) का जन्म 6 जून 1799 को मॉस्को में हुआ. आधुनिक रूसी साहित्य का दिशा-निर्धारण करने तथा उसे आम जनमानस तक ले जाने वाले ‘राष्ट्रीय कवि’ की आज 225वीं जयंती है.
राजधानी दिल्ली के मंडी हाउस चौराहे पर स्थापित पुश्किन की कांस्य प्रतिमा भारतीयों की रूसी साहित्य में गहरी रुचि का प्रतीक चिह्न दिखाई पड़ता है. इस प्रतिमा का अनावरण 1988 में सोवियत संघ के तत्कालीन राष्ट्रपति और नोबल पुरस्कार विजेता मिखाइल गर्बाच्योव ने किया था.
पुश्किन का जन्मदिवस रूसी भाषा दिवस के रूप में भी मनाया जाता है. विश्व साहित्य में पुश्किन के कद का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि अपने 38 साल के जीवन के दौरान उन्होंने न केवल बच्चों, युवाओं और बुजुर्गों का प्यार समान रूप से पाया, बल्कि भावी पीढ़ी के लेखकों के लिए भी एक मानक तथा प्रेरणा प्रतीत होते हैं.
पीड़ितों और वंचितों के प्रति संवेदना
कुलीन परिवार के इस साहित्यकार की समाज के पीड़ितों और वंचितों के प्रति संवेदना तथा साहित्यिक निष्ठा अलग-अलग रचनाओं के पात्रों के माध्यम से स्पष्ट होती हैं. फ्रांसीसी, यूनानी और लातिन साहित्य और दर्शन को तो पुश्किन ने पुस्तकालयों से जाना लेकिन रूसी भाषा और संस्कृति की समझ को ढालने में उनकी आया अरीना रजियोनवना का बड़ा योगदान रहा.
प्रेम के प्रति गहरी आस्था और अनैतिकता के विरुद्ध संघर्ष न केवल उनकी लेखनी में दिखती है, उनकी निजी जीवन की रूपरेखा भी इन्हीं मूल्यों पर आधारित प्रतीत होती है. प्रकृति से गहरा लगाव और आम जनमानस की मौलिक समझ उनके लेखनी को और उत्कृष्ट बनाते हैं.
उनकी लेखनी विविधता में सरलता के परंपरा को जन्म देने वाली मानी जा सकती है. एक तरफ छंदों में लिखा ‘यिवगेनी अनेगिन’ शीर्षक का उपन्यास रूसी साहित्य की एक श्रेष्ठ कृति मानी जाती है तो दूसरी तरफ ‘बेलकिन की कहानियां’ ने समाज के ‘छोटे लोग’ के प्रतीकात्मक चरित्र को अमर कर दिया.
विद्रोही प्रवृति के पुश्किन
अभिजात वर्ग में जन्मे विद्रोही प्रवृति के पुश्किन को निरंकुश जारशाही के विरुद्ध आवाज उठाने के लिए निर्वासित भी किया गया, पर निर्वासन में ही उन्होंने अपने जीवन की सबसे प्रभावशाली रचनाओं का सर्जन कर डाला.
पुश्किन अपनी सांस्कृतिक धरोहरों और पूर्वजों को लेकर गर्व की अनुभूति किया करते थे, इसलिए उन्होंने इनका विस्तृत अध्ययन भी किया. 1831 में अपने एक पत्र में वो जोर देते हुए लिखते हैं, ‘मैं अपने पूर्वजों के नाम को बहुत महत्व देता हूं, यही एकमात्र विरासत है जो मुझे उनसे मिली है.’ पुश्किन यहीं नहीं रुकते वो लिखते हैं, ‘अपने पूर्वजों के गौरवशाली इतिहास पर गर्व करना ऐक्षिक नहीं, अनिवार्य है; उसका सम्मान न करना शर्मनाक कृत्य है.’
एक द्वंद्व युद्ध में गंभीर रूप से घायल रूसी साहित्य का यह दिनकर मात्र 38 वर्ष की उम्र में ही 10 फरवरी 1837 को सदा के लिए अस्त हो गया. पुश्किन को समझने के लिए उनकी साहित्यिक रचनाओं को पढ़ना होगा. इसी क्रम में आप इस महान कवि की एक कविता ‘चेतना’ (मूल रूसी- пробуждение) का हिंदी अनुवाद पढ़ सकते हैं:
चेतना
मन की तरंगों
कहां, तुम कहां हो
कहां है तुम्हारा वो मीठा सा अनुभव
निशा की वो बेला, वो सुख का समंदर
छुप कर क्यूं बैठी उमंगी तरंगें
मेरे मन की तरंगें
मन एकाकी-अकेला
निशा भी है श्यामा
तत्क्षण में रूखीं
तत्क्षण में ओझल
समूचा पलायन, ये कितनी क्षणिक हैं
अनुरागी तरंगें
अधूरी न कोई
प्रीति-आसक्ति
निंदिया ने घेरा
क्या सुखद है स्मृति
हे प्रीति-प्रणय, हे सहज अनुभूति
प्रतीक्षा यही है
पुनः तू आ घेरे
मैं झूमूं आनंदित
मैं झूमूं प्रफुल्लित
जो आए सवेरा
लो फिर से थका-सा
क्यूं मर ही न जाऊं
मैं स्वप्निल-अचेतन.
(लेखक दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (JNU) के रूसी भाषा केंद्र में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं.)
-भारत एक्सप्रेस