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कौन थीं भीकाजी कामा, जिन्होंने आजादी से बहुत पहले 1907 में विदेशी धरती पर लहराया था भारतीय ध्वज

‘भारतीय क्रांति की जननी’ के रूप में ख्याति अर्जित करने वाली भीकाजी कामा ने ब्रिटेन के अलावा अमेरिका और जर्मनी की अपनी यात्रा के दौरान भारत की स्वतंत्रता के लिए अभियान चलाया था.

भीकाजी कामा और उनके द्वारा फहराए गए भारतीय ध्वज की तस्वीर. (फोटो: Wikipedia)

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम (Indian Freedom Struggle) में शामिल एक प्रमुख हस्ती भीकाजी कामा (Bhikaji Cama) का जन्म 24 सितंबर, 1861 को एक समृद्ध पारसी परिवार में हुआ था. वह मैडम कामा (Madam Cama) के नाम से प्रसिद्ध थीं. उनके पिता सोराबजी फ्रामजी पटेल एक प्रसिद्ध व्यापारी थे और बॉम्बे (अब मुंबई) शहर में व्यवसाय, शिक्षा और परोपकार के मामले में सबसे अग्रणी व्यक्ति माने जाते थे.

‘भारतीय क्रांति की जननी’ के रूप में ख्याति अर्जित करने वाली भीकाजी कामा ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा बॉम्बे में प्राप्त की. 1885 में उन्होंने एक प्रसिद्ध वकील रुस्तमजी कामा से विवाह किया, लेकिन सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों में उनकी भागीदारी के कारण दंपति के बीच मतभेद हो गए.

महामारी के दौरान लोगों की सेवा की

भीकाजी कामा का जीवन अक्टूबर 1896 में बदल गया, जब बॉम्बे प्रेसीडेंसी (Bombay Presidency) में भयंकर ब्यूबोनिक प्लेग महामारी फैल गई. इस दौरान उन्होंने खुद को सामाजिक कार्यों में झोंक दिया और प्रभावित लोगों की देखभाल और राहत प्रदान करना शुरू कर दिया. दुर्भाग्य से वह खुद भी इस भयानक बीमारी की चपेट में आ गईं, लेकिन उन्हें बचा लिया गया. हालांकि उनके स्वास्थ्य पर प्रतिकूल तौर पर प्रभाव पड़ा.

उन्हें स्वास्थ्य लाभ के लिए लंदन भेजा गया. वैवाहिक समस्याओं और अपने खराब स्वास्थ्य के कारण भीकाजी कामा चिकित्सा लाभ लेने के लिए भारत छोड़कर लंदन चली गईं. वहां रहने के दौरान उनकी मुलाकात अंग्रेजों के कट्टर आलोचक दादाभाई नौरोजी (Dadabhai Naoroji) से हुई. उनके आदर्शों से प्रेरित होकर वे स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़ीं.

स्वतंत्रता आंदोलन का समर्थन

उन्होंने श्यामजी वर्मा, लाला हरदयाल जैसे अन्य भारतीय राष्ट्रवादियों से भी मिलना शुरू किया और जल्द ही आंदोलन की सक्रिय सदस्यों में से एक बन गईं. उन्होंने स्वराज के उद्देश्य का प्रचार करते हुए इंग्लैंड में भारतीय समुदाय के लिए किताबें प्रकाशित करना शुरू किया. उन्होंने अमेरिका का दौरा किया, वहां ब्रिटिश शासन के दुष्प्रभावों पर भाषण दिए और अमेरिकियों से भारत के स्वतंत्रता आंदोलन का समर्थन करने का आग्रह किया.

ब्रिटेन के अलावा उन्होंने कई देशों की यात्रा की थी. अमेरिका और जर्मनी की यात्रा के दौरान उन्होंने भारत की स्वतंत्रता और भारतीयों के लिए यह क्यों महत्वपूर्ण है, इसके लिए अभियान चलाया था. फ्रांस की राजधानी पेरिस में रहने के दौरान भीकाजी कामा द्वारा प्रकाशित होने वाला ‘वंदे मातरम’ पत्र प्रवासी भारतीयों में काफी लोकप्रिय था.

Bust of Bhikaiji Cama with Flag of Indian Independence at kranti van Vadodara, Gujarat Wikipedia
गुजरात के वडोदरा शहर स्थित क्रांति वन में भारतीय स्वतंत्रता के ध्वज के साथ भीकाजी कामा की प्रतिमा (फोटो: Wikipedia)

ब्रिटिशों से स्वायत्तता की अपील

मैडम भीकाजी कामा 22 अगस्त 1907 को विदेशी धरती पर भारतीय ध्वज फहराने वाली पहली व्यक्ति बनीं. जर्मनी (Germany) के स्टटगार्ट (Stuttgart) में 7वीं अंतरराष्ट्रीय सोशलिस्ट कॉन्फ्रेंस (International Socialist Conference) में भारतीय ध्वज (Indian Flag) फहराते हुए उन्होंने ब्रिटिशों से समानता और स्वायत्तता की अपील की. हालांकि, उस समय तिरंगा झंडा वैसा नहीं था जैसा कि आज है. इसे खुद मैडम कामा ने डिजाइन किया था.

कहा जाता है कि भीकाजी कामा ने जिस भारतीय ध्वज को जर्मनी के स्टटगार्ड में लहराया था, उसमें भारत के विभिन्न धर्मों का प्रतिनिधित्व था. ध्वज में इन धर्मों की भावनाओं और संस्कृति को समेटने की कोशिश की गई थी. इस झंडे में हिंदू, मुस्लिम और बौद्ध धर्म की मान्यताओं को प्रदर्शित करने के लिए लाल, हरे और पीले रंग का इस्तेमाल किया गया था. साथ ही इस झंडे के बीच में देवनागरी लिपि में ‘वंदे मातरम’ लिखा हुआ था.

हिंदुस्तान, हिंदुस्तानियों का है

भीकाजी कामा ने इस दौरान दिए गए अपने भाषण में कहा था, ‘भारत में ब्रिटिश शासन (British Rule) जारी रहना मानवता के नाम पर कलंक है. एक महान देश भारत के हितों को इससे भारी क्षति पहुंच रही है.’ उन्होंने सभा में मौजूद लोगों से भारत को दासता से मुक्ति दिलाने में सहयोग की अपील की थी और भारतवासियों का आह्वान करते हुए कहा था, ‘आगे बढ़ो, हम हिंदुस्तानी हैं और हिंदुस्तान (Hindustan) हिंदुस्तानियों का है.’

राष्ट्रवादी गतिविधियों से अंग्रेज हो थे नाराज

उस जमाने में भीकाजी कामा की इन गतिविधियों को लेकर ब्रिटिश सरकार ने नाराजगी जाहिर की थी और उन्हें भारत लौटने का निर्देश दिया था. अंग्रेजों ने इसके साथ एक शर्त भी रखी थीं कि अगर वे भारत लौटीं तो राष्ट्रवादी गतिविधियों में भाग नहीं लेंगी. कहा जाता था है कि भीकाजी भारत तो लौटना चाहती थीं, लेकिन अंग्रेजों की ये शर्त उन्हें मंजूर नहीं थी. वह चाहती थीं कि जब भी वे भारत लौटें तो अपने देशवासियों की सेवा न कर सकें. इसी वजह से उन्होंने ब्रिटिश सरकार की शर्त के हिसाब से भारत लौटने से इनकार कर दिया था.

75 साल की उम्र में 13 अगस्त 1936 को भीकाजी कामा ने बॉम्बे में अंतिम सांस ली. उनकी जन्म शताब्दी पर सम्मान देने के लिए 1962 में एक डाक टिकट जारी किया था.

(समाचार एजेंसी IANS से इनपुट के साथ)

-भारत एक्सप्रेस



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