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सुप्रीम कोर्ट, CJI और जजों पर टिप्पणी को लेकर कहां तक है अधिकार….कौन सी टिपप्णी है अपराध?

निशिकांत दुबे के सुप्रीम कोर्ट पर “धार्मिक युद्ध” भड़काने के आरोप ने अवमानना का मामला खड़ा किया. सुप्रीम कोर्ट ने याचिकाकर्ता को अटॉर्नी जनरल से मंजूरी लेने को कहा. यह मामला अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और अवमानना के बीच संतुलन पर सवाल उठाता है.

supreme court

भारतीय जनता पार्टी (BJP) के सांसद निशिकांत दुबे द्वारा सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ की गई टिप्पणी का मामला आज देश की सुप्रीम कोर्ट में पहुंचा. सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस बीआर गवई ने इस मामले में याचिकाकर्ता से सवाल किया कि वे इस मामले में क्या चाहते हैं. याचिकाकर्ता के वकील ने जवाब दिया कि वे निशिकांत दुबे के खिलाफ अवमानना का मामला दर्ज करना चाहते हैं.

जस्टिस गवई ने स्पष्ट किया कि इसके लिए याचिकाकर्ता को सुप्रीम कोर्ट की अनुमति की आवश्यकता नहीं है, लेकिन उन्हें अटॉर्नी जनरल से मंजूरी लेनी होगी. इस मामले ने एक बार फिर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और न्यायालय की अवमानना के बीच के नाजुक संतुलन को चर्चा के केंद्र में ला दिया है. निशिकांत दुबे ने हाल ही में सुप्रीम कोर्ट पर “धार्मिक युद्ध” और “गृह युद्ध” भड़काने का आरोप लगाया था, जिसे कई लोग अपमानजनक और भड़काऊ मान रहे हैं.

निशिकांत दुबे का विवादित बयान

19 अप्रैल 2025 को बीजेपी सांसद निशिकांत दुबे ने एक सार्वजनिक बयान में कहा था कि सुप्रीम कोर्ट देश में “धार्मिक युद्ध” और “गृह युद्ध” भड़का रहा है. उन्होंने यह भी कहा कि अगर सुप्रीम कोर्ट कानून बनाने का काम करेगा, तो संसद को बंद कर देना चाहिए. इस बयान ने न केवल राजनीतिक हलकों में हलचल मचाई, बल्कि कानूनी और न्यायिक समुदाय में भी तीखी प्रतिक्रिया को जन्म दिया.

अधिवक्ता नरेंद्र मिश्रा ने इस बयान को आधार बनाते हुए सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) और अन्य जजों को पत्र लिखकर निशिकांत दुबे के खिलाफ कार्रवाई की मांग की थी. पत्र में कहा गया कि सांसद का बयान झूठा, लापरवाह, दुर्भावनापूर्ण और आपराधिक अवमानना के समान है.

सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई

सोमवार को सुप्रीम कोर्ट में इस मामले की सुनवाई के दौरान जस्टिस बीआर गवई ने याचिकाकर्ता के वकील से पूछा, “आप क्या चाहते हैं?” वकील ने जवाब दिया कि वे निशिकांत दुबे के खिलाफ अवमानना का मुकदमा दर्ज करना चाहते हैं. जस्टिस गवई ने कहा, “आप इसे दाखिल करें. आपको हमारी अनुमति की जरूरत नहीं है. लेकिन आपको अटॉर्नी जनरल से मंजूरी लेनी होगी.” यह टिप्पणी इस बात का संकेत है कि सुप्रीम कोर्ट इस मामले को गंभीरता से ले रहा है, लेकिन वह प्रक्रियात्मक नियमों का पालन करने पर जोर दे रहा है. संविधान के तहत, आपराधिक अवमानना के मामले में अटॉर्नी जनरल या सॉलिसिटर जनरल की लिखित सहमति आवश्यक है.

अवमानना कानून: क्या कहता है नियम?

भारत में न्यायालय की अवमानना को नियंत्रित करने के लिए न्यायालय की अवमानना कानून, 1971 लागू है. यह कानून दो प्रकार की अवमानना को परिभाषित करता है: नागरिक अवमानना और आपराधिक अवमानना.

  • नागरिक अवमानना: इसमें कोर्ट के किसी आदेश, निर्णय, डिक्री, रिट या अन्य प्रक्रिया का जानबूझकर उल्लंघन शामिल है. उदाहरण के लिए, अगर कोई व्यक्ति कोर्ट के आदेश का पालन करने से इनकार करता है, तो यह नागरिक अवमानना माना जाता है.
  • आपराधिक अवमानना: यह अधिक व्यापक और गंभीर है. इसमें ऐसी टिप्पणियां या कार्य शामिल हैं जो कोर्ट की गरिमा को ठेस पहुंचाते हैं, उसकी निष्पक्षता पर सवाल उठाते हैं, जनता में कोर्ट के प्रति अविश्वास पैदा करते हैं, या न्यायिक प्रक्रिया में हस्तक्षेप करते हैं.

निशिकांत दुबे का बयान आपराधिक अवमानना के दायरे में आ सकता है, क्योंकि यह सुप्रीम कोर्ट की निष्पक्षता और गरिमा पर सवाल उठाता है. कानून की धारा 2(c) के तहत, ऐसी टिप्पणियां जो कोर्ट को बदनाम करती हों या उसकी प्रक्रियाओं को बाधित करती हों, अवमानना मानी जाती हैं.

संविधान और सुप्रीम कोर्ट की शक्तियां

भारत का संविधान सुप्रीम कोर्ट को विशेष शक्तियां प्रदान करता है. अनुच्छेद 129 सुप्रीम कोर्ट को “कोर्ट ऑफ रिकॉर्ड” का दर्जा देता है और इसे अपनी अवमानना के लिए दंडित करने का अधिकार प्रदान करता है. इसके अलावा, अनुच्छेद 142 सुप्रीम कोर्ट को न्याय के हित में व्यापक शक्तियां देता है. सुप्रीम कोर्ट निम्नलिखित तरीकों से अवमानना के मामले में कार्रवाई कर सकता है:

  • स्वतः संज्ञान: कोर्ट स्वयं किसी बयान या कार्य का संज्ञान ले सकता है.
  • अटॉर्नी जनरल या सॉलिसिटर जनरल की याचिका: इन अधिकारियों की याचिका पर कार्रवाई हो सकती है.
  • निजी याचिका: कोई व्यक्ति भी याचिका दायर कर सकता है, लेकिन आपराधिक अवमानना के मामले में अटॉर्नी जनरल या सॉलिसिटर जनरल की सहमति आवश्यक है.

इन प्रावधानों के तहत, सुप्रीम कोर्ट अपनी स्वतंत्रता और गरिमा की रक्षा के लिए कठोर कदम उठा सकता है.

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बनाम अवमानना

भारत के संविधान का अनुच्छेद 19(1)(a) अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी देता है, लेकिन अनुच्छेद 19(2) के तहत इस स्वतंत्रता पर कुछ “यथोचित प्रतिबंध” लगाए गए हैं. इनमें न्यायपालिका की गरिमा, सार्वजनिक व्यवस्था और नैतिकता जैसे मुद्दे शामिल हैं. इसका मतलब है कि कोर्ट के फैसलों की तर्कसंगत और सम्मानजनक आलोचना अपराध नहीं है, लेकिन ऐसी टिप्पणियां जो कोर्ट की निष्पक्षता पर व्यक्तिगत हमला करती हों या उसकी गरिमा को ठेस पहुंचाती हों, अवमानना मानी जा सकती हैं.

उदाहरण के लिए, किसी फैसले के कानूनी आधार पर सवाल उठाना अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दायरे में आता है. लेकिन जजों को “भ्रष्ट” या “बिकाऊ” कहना, या कोर्ट को “धार्मिक युद्ध” भड़काने का जिम्मेदार ठहराना, अवमानना की श्रेणी में आ सकता है. यह बयान की व्याख्या, उसके संदर्भ, तीव्रता और पीछे की मंशा पर निर्भर करता है.

निशिकांत दुबे का बयान: अवमानना या आलोचना?

निशिकांत दुबे का बयान कि सुप्रीम कोर्ट “धार्मिक युद्ध” और “गृह युद्ध” भड़का रहा है, और संसद को बंद करने की बात, कई लोगों ने अपमानजनक माना है. यह बयान न केवल कोर्ट की निष्पक्षता पर सवाल उठाता है, बल्कि जनता में कोर्ट के प्रति अविश्वास पैदा करने की क्षमता भी रखता है. हालांकि, यह कोर्ट पर निर्भर करता है कि वह इस बयान को किस संदर्भ में देखता है. क्या इसे राजनीतिक बयानबाजी माना जाएगा, या फिर यह आपराधिक अवमानना की श्रेणी में आएगा? इस सवाल का जवाब आने वाले समय में कोर्ट की व्याख्या से मिलेगा.

अवमानना की सजा

न्यायालय की अवमानना कानून, 1971 की धारा 12 के तहत, आपराधिक अवमानना के लिए निम्नलिखित सजा का प्रावधान है:

  • अधिकतम 6 महीने की साधारण कारावास.
  • अधिकतम 2,000 रुपये का जुर्माना.
  • कोर्ट दोनों सजाएं एक साथ भी दे सकता है.

इसके अलावा, कोर्ट दोषी व्यक्ति से माफी मांगने की मांग कर सकता है. अगर माफी कोर्ट को संतोषजनक लगती है, तो सजा को कम किया जा सकता है या माफ भी किया जा सकता है.

ऐतिहासिक संदर्भ और आलोचना

भारत में अवमानना कानून की जड़ें औपनिवेशिक काल से जुड़ी हैं, और इसे ब्रिटिश शासन के दौरान कोर्ट की सत्ता को बनाए रखने के लिए बनाया गया था. दिलचस्प बात यह है कि ब्रिटेन में अवमानना कानून को काफी हद तक समाप्त कर दिया गया है, लेकिन भारत में यह अभी भी लागू है. कई कानूनी विशेषज्ञों और नागरिकों ने अवमानना कानून की आलोचना की है, इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने वाला बताया है. उनका तर्क है कि आलोचना को दबाने के लिए इस कानून का दुरुपयोग हो सकता है.

हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने बार-बार स्पष्ट किया है कि वह तर्कसंगत और सम्मानजनक आलोचना के लिए खुला है. कोर्ट का कहना है कि वह व्यक्तिगत हमलों या संस्थागत अपमान को बर्दाश्त नहीं करेगा. निशिकांत दुबे का बयान इस संदर्भ में एक महत्वपूर्ण मामला बन गया है, क्योंकि यह न केवल कोर्ट की गरिमा पर सवाल उठाता है, बल्कि न्यायपालिका और विधायिका के बीच संभावित टकराव को भी दर्शाता है.

निशिकांत दुबे की टिप्पणी ने एक बार फिर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और न्यायालय की अवमानना के बीच के नाजुक संतुलन को चर्चा में ला दिया है. सुप्रीम कोर्ट का यह रुख कि याचिकाकर्ता को अटॉर्नी जनरल से मंजूरी लेनी होगी, इस बात का संकेत है कि कोर्ट इस मामले को प्रक्रियात्मक और कानूनी ढांचे के तहत ही देखेगा.

यह मामला न केवल निशिकांत दुबे के बयान की वैधानिकता पर सवाल उठाता है, बल्कि यह भी तय करेगा कि भविष्य में ऐसी टिप्पणियों को किस तरह देखा जाएगा. क्या यह बयान कोर्ट की गरिमा को ठेस पहुंचाने वाला माना जाएगा, या फिर इसे राजनीतिक आलोचना के दायरे में रखा जाएगा? इसका जवाब आने वाले समय में सुप्रीम कोर्ट की व्याख्या से मिलेगा.

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-भारत एक्सप्रेस



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